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राजेश कुशवाहा 'राज'
------------------!! मुक्तक !!---------------- हकीकत को न पूछो तुम, कहाँ बेचैन बैठी है। कहाँ आँसू बहाती है, कहाँ किससे वो रूठी है। बड़ी रफ्तार से चलती, यहाँ है झूठ की दुनिया- दिखाकर आँख वो सच को पकड़ के कान ऐंठी है। ------------------------------------------- ~ राजेश कुमार कुशवाहा 'राज' सीधी(मध्यप्रदेश) ©राजेश कुशवाहा 'राज' ------------------!! मुक्तक !!---------------- हकीकत को न पूछो तुम, कहाँ बेचैन बैठी है। कहाँ आँसू बहाती है, कहाँ किससे वो रूठी है। बड़ी रफ्तार से चलती, यहाँ है झूठ की दुनिया- दिखाकर आँख वो सच को पकड़ के कान ऐंठी है। ------------------------------------------- ~ राजेश कुमार कुशवाहा 'राज' सीधी(मध्यप्रदेश) #कुशवाहाजी
------------------!! मुक्तक !!---------------- हकीकत को न पूछो तुम, कहाँ बेचैन बैठी है। कहाँ आँसू बहाती है, कहाँ किससे वो रूठी है। बड़ी रफ्तार से चलती, यहाँ है झूठ की दुनिया- दिखाकर आँख वो सच को पकड़ के कान ऐंठी है। ------------------------------------------- ~ राजेश कुमार कुशवाहा 'राज' सीधी(मध्यप्रदेश) #कुशवाहाजी
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एक मुक्तक ऐसा भी --- हृदय की वेदना को तुम, हृदय में 'राज' रहने दो। बने जो प्रेम का सागर, हृदय का 'साज' रहने दो। मोहब्बत एक दरिया है, जो अविरल यूँ बहेगी ही, गर नाराज हो दुनिया तो, उसे 'नाराज' रहने दो। ©राजेश कुशवाहा 'राज' एक मुक्तक ऐसा भी --- हृदय की वेदना को तुम, हृदय में 'राज' रहने दो। बने जो प्रेम का सागर, हृदय का 'साज' रहने दो।
एक मुक्तक ऐसा भी --- हृदय की वेदना को तुम, हृदय में 'राज' रहने दो। बने जो प्रेम का सागर, हृदय का 'साज' रहने दो।
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चमक रहे हैं नयन तुम्हारे, जैसे पूनम का चंदा हो। माथे की बिंदिया भी लागे, जैसे पूनम का चंदा हो। कानों के बाली की छाया, गालों पर यूं इतराती है। शांत सरोवर में दिखता, जैसे पूनम का चंदा हो। ©राजेश कुशवाहा चमक रहे हैं नयन तुम्हारे, जैसे पूनम का चंदा हो। माथे की बिंदिया भी लागे, जैसे पूनम का चंदा हो। कानों के बाली की छाया, गालों पर यूं इतराती है।
चमक रहे हैं नयन तुम्हारे, जैसे पूनम का चंदा हो। माथे की बिंदिया भी लागे, जैसे पूनम का चंदा हो। कानों के बाली की छाया, गालों पर यूं इतराती है।
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देखना नजरों का सबने, छोड़ डाला कैमरे पर। क्या बुरा क्या खूबसूरत, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। दिन में हैं तारे चमकते, और धूप काली रात को। चांद के इस चांदनी को, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। बंद कमरो की हकीकत, चौराहों के झूठ को। कोर्ट के हर फैसले को, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। प्राकृतिक सौंदर्य कितना, ये पता है कैमरे को। फूल भँवरे के मिलन को, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। नींद आँखों से छिनी, अब देखते बस चित्र को। क्या फसाना है हकीकत, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। कुशल प्रहरी बन चुका है, खोजता ये चोर को। अब राज ने हर राज को, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। समाचारों की दुनिया में, दिखा रहा सच झूठ को। अच्छी खासी राजनीति को, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। देखना नजरों का सबने, छोड़ डाला कैमरे पर। क्या बुरा क्या खूबसूरत, छोड़ डाला कैमरे पर।। ©राजेश कुशवाहा देखना नजरों का सबने, छोड़ डाला कैमरे पर। क्या बुरा क्या खूबसूरत, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। दिन में हैं तारे चमकते, और धूप काली रात को। चांद के इस चांदनी को, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।।
देखना नजरों का सबने, छोड़ डाला कैमरे पर। क्या बुरा क्या खूबसूरत, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।। दिन में हैं तारे चमकते, और धूप काली रात को। चांद के इस चांदनी को, छोड़ डाला कैमरे पर।। देखना नजरों का सबने.....।।
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------!! गजल / कोहरा !!----- धुँधला धुँधला शहर लग रहा, सर्द हवा झकझोर रही है। उजले उजले से पर्दों पर, श्यामल परछाई पुकार रही है।। कदम तले है चुपके से आती, नरमी सुर्ख सुर्ख रातो में। ज्यों आँचल में माँ की ममता, वो हाथों को फेर रही है।। अब आवाजें हैं आती जाती, किसी और का पता नही। पिघली पिघली बर्फें उड़कर, चँहुदिशि रंगत घोर रही है।। क्या आगे क्या पीछे देखें, है चारों ओर लहरों का साया। कुछ भागें कुछ पास बुलाएं, कुछ चित्रों को उकेर रही है।। छूता हूँ नाजुक हाथों से, फिर भी उनको न छू पाता हूँ। पर ये अंगों को छू करके, मन तृष्णा को बिखेर रही है।। क्या है राज इन उड़ते मोती का, राज नही पहचान रहा। जलप्रपात के दुग्धधार से, प्रकृति स्वयं को बुहार रही है।। ©राजेश कुशवाहा ------!! गजल / कोहरा !!----- धुँधला धुँधला शहर लग रहा, सर्द हवा झकझोर रही है। उजले उजले से पर्दों पर, श्यामल परछाई पुकार रही है।। कदम तले है चुपके से आती, नरमी सुर्ख सुर्ख रातो में। ज्यों आँचल में माँ की ममता, वो हाथों को फेर रही है।।
------!! गजल / कोहरा !!----- धुँधला धुँधला शहर लग रहा, सर्द हवा झकझोर रही है। उजले उजले से पर्दों पर, श्यामल परछाई पुकार रही है।। कदम तले है चुपके से आती, नरमी सुर्ख सुर्ख रातो में। ज्यों आँचल में माँ की ममता, वो हाथों को फेर रही है।।
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#5LinePoetry भोर आई है अब, जग गया है जहां, लोग चलने लगे, अब है जीना यहाँ। गाने पंछी लगे, मन मगन हो रहा, नवीन कलियों पे, भँवरा है मडरा रहा। फूल टूटेगा डाली से, बलिदान होगा, देव,दुल्हन,या शव पर ये,फिर से चढ़ेगा। शोर नदियों में है, हैं लहरे इतरा रही, प्यास तन मन की,सबकी बुझेगी यही। पेड़ पौधों में भी, जान अब आ गयी, नया भोजन बनेगा, है रोशनी अब नयी। पूजा अर्चना की बेला, है आई अभी, देव दर्शन करो, पुण्य पाओ सभी। शांत मन से चलो, कर्म अपना करो, जो तुम्हारे लिए हो, प्राप्त उसको करो। "राज" की प्रार्थना, है दिवाकर प्रभु से, भरो जग में चेतना, यूँ अपनी किरण से। ✍राजेश कुमार कुशवाहा "राज" ©राजेश कुशवाहा भोर आई है अब, जग गया है जहां, लोग चलने लगे, अब है जीना यहाँ। गाने पंछी लगे, मन मगन हो रहा, नवीन कलियों पे, भँवरा है मडरा रहा। फूल टूटेगा डाली से, बलिदान होगा, देव,दुल्हन,या शव पर ये,फिर से चढ़ेगा। शोर नदियों में है, हैं लहरे इतरा रही, प्यास तन मन की,सबकी बुझेगी यही।
भोर आई है अब, जग गया है जहां, लोग चलने लगे, अब है जीना यहाँ। गाने पंछी लगे, मन मगन हो रहा, नवीन कलियों पे, भँवरा है मडरा रहा। फूल टूटेगा डाली से, बलिदान होगा, देव,दुल्हन,या शव पर ये,फिर से चढ़ेगा। शोर नदियों में है, हैं लहरे इतरा रही, प्यास तन मन की,सबकी बुझेगी यही।
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-------!! सोच लो रात भर !!------- सोच लो रात भर, दर पे बैठा रहूंगा। कर रहा हूँ मोहब्बत, मैं करता रहूंगा।। सोच लो रात भर.....।। हूँ अधूरा तेरे बिन,अब न पूरा है कुछ। साथ चल ही रहा हूँ, मैं चलता रहूंगा।। सोच लो रात भर.....।। आंख भर आती है, दिल ये बेचैन है। रो रहा हूँ तेरे बिन, मै रोता रहूंगा।। सोच लो रात भर.....।। जो गली तेरा रस्ता है,तू गुजरे जहाँ से। यूँ मील के पत्थरों सा,मैं तकता रहूँगा।। सोच लो रात भर.....।। बात मानो न मानो, है कुछ गम नही। मेरी आदत मनाने की,मैं मनाता रहूँगा।। सोच लो रात भर.....।। खाली दिल हो रहा, मन रहा है मचल। तू यूँ सुने न सुने , मैं सुनाता रहूँगा।। सोच लो रात भर.....।। "राज" हूँ राज रक्खूगा मैं तेरी बात को। सब तुम्ही से कहा हूँ, मैं कहता रहूँगा।। सोच लो रात भर.....।। अब तो सोचो भला, कुछ मेरे बात को। तू बात होठों पे ला, मैं समझता रहूँगा।। सोच लो रात भर.....।। सोच लो रात भर, दर पे बैठा रहूँगा। कर रहा हूँ मोहब्बत, मैं करता रहूँगा।। ✍राजेश कुमार कुशवाहा "राज" ©राजेश कुशवाहा -------!! सोच लो रात भर !!------- सोच लो रात भर, दर पे बैठा रहूंगा। कर रहा हूँ मोहब्बत, मैं करता रहूंगा।। सोच लो रात भर.....।। हूँ अधूरा तेरे बिन,अब न पूरा है कुछ। साथ चल ही रहा हूँ, मैं चलता रहूंगा।। सोच लो रात भर.....।।
-------!! सोच लो रात भर !!------- सोच लो रात भर, दर पे बैठा रहूंगा। कर रहा हूँ मोहब्बत, मैं करता रहूंगा।। सोच लो रात भर.....।। हूँ अधूरा तेरे बिन,अब न पूरा है कुछ। साथ चल ही रहा हूँ, मैं चलता रहूंगा।। सोच लो रात भर.....।।
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अब तेरे शहर में लोग, बिकने लगें हैं, सच को छोड़ सब झूठ कहने लगें हैं। इश्क के हाट खुलेआम चलने लगें हैं, मुहब्बत के मायने अब बदलने लगें हैं। गलियों में अपनी दुकाने लगाने लगें हैं, यूँ प्यार को अब तमाशा बनाने लगें हैं। ये थाम कर हाथ गैरों का चलने लगें हैं, अपनों को अपनी अब दिखाने लगें हैं। जो करे प्रेम सबसे मूरख कहाने लगें हैं, मुहब्बत को जिस्म से अब तौलाने लगें हैं। हालातों के जिम्मेदार उन्हें बताने लगें हैं, बेबस,लाचार,गरीब को ही सताने लगें हैं। मन की मंशा से यूँ गरीबी दिखाने लगें हैं, धन कमाने को ही बड़प्पन बताने लगें हैं। "राज" की बात यूँ खुलेआम करने लगें हैं, पर्दे की बात पर्दे पर अब लिखने लगें हैं। अब तेरे शहर में लोग, बिकने लगें हैं, सच को छोड़ सब झूठ कहने लगें हैं। ✍राजेश कुमार कुशवाहा "राज" सीधी(मध्यप्रदेश) ©राजेश कुशवाहा *----------!! तेरे शहर में !!---------* अब तेरे शहर में लोग, बिकने लगें हैं, सच को छोड़ सब झूठ कहने लगें हैं। इश्क के हाट खुलेआम चलने लगें हैं, मुहब्बत के मायने अब बदलने लगें हैं।
*----------!! तेरे शहर में !!---------* अब तेरे शहर में लोग, बिकने लगें हैं, सच को छोड़ सब झूठ कहने लगें हैं। इश्क के हाट खुलेआम चलने लगें हैं, मुहब्बत के मायने अब बदलने लगें हैं।
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अब तेरे शहर में लोग, बिकने लगें हैं, सच को छोड़ सब झूठ कहने लगें हैं। इश्क के हाट खुलेआम चलने लगें हैं, मुहब्बत के मायने अब बदलने लगें हैं। गलियों में अपनी दुकाने लगाने लगें हैं, यूँ प्यार को अब तमाशा बनाने लगें हैं। ये थाम कर हाथ गैरों का चलने लगें हैं, अपनों को अपनी अब दिखाने लगें हैं। जो करे प्रेम सबसे मूरख कहाने लगें हैं, मुहब्बत को जिस्म से अब तौलाने लगें हैं। हालातों के जिम्मेदार उन्हें बताने लगें हैं, बेबस,लाचार,गरीब को ही सताने लगें हैं। मन की मंशा से यूँ गरीबी दिखाने लगें हैं, धन कमाने को ही बड़प्पन बताने लगें हैं। "राज" की बात यूँ खुलेआम करने लगें हैं, पर्दे की बात पर्दे पर अब लिखने लगें हैं। अब तेरे शहर में लोग, बिकने लगें हैं, सच को छोड़ सब झूठ कहने लगें हैं। ✍राजेश कुमार कुशवाहा "राज" सीधी(मध्यप्रदेश) ©राजेश कुशवाहा *----------!! तेरे शहर में !!---------* अब तेरे शहर में लोग, बिकने लगें हैं, सच को छोड़ सब झूठ कहने लगें हैं। इश्क के हाट खुलेआम चलने लगें हैं, मुहब्बत के मायने अब बदलने लगें हैं।
*----------!! तेरे शहर में !!---------* अब तेरे शहर में लोग, बिकने लगें हैं, सच को छोड़ सब झूठ कहने लगें हैं। इश्क के हाट खुलेआम चलने लगें हैं, मुहब्बत के मायने अब बदलने लगें हैं।
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