------!! गजल / कोहरा !!----- धुँधला धुँधला शहर लग रहा, सर्द हवा झकझोर रही है। उजले उजले से पर्दों पर, श्यामल परछाई पुकार रही है।। कदम तले है चुपके से आती, नरमी सुर्ख सुर्ख रातो में। ज्यों आँचल में माँ की ममता, वो हाथों को फेर रही है।। अब आवाजें हैं आती जाती, किसी और का पता नही। पिघली पिघली बर्फें उड़कर, चँहुदिशि रंगत घोर रही है।। क्या आगे क्या पीछे देखें, है चारों ओर लहरों का साया। कुछ भागें कुछ पास बुलाएं, कुछ चित्रों को उकेर रही है।। छूता हूँ नाजुक हाथों से, फिर भी उनको न छू पाता हूँ। पर ये अंगों को छू करके, मन तृष्णा को बिखेर रही है।। क्या है राज इन उड़ते मोती का, राज नही पहचान रहा। जलप्रपात के दुग्धधार से, प्रकृति स्वयं को बुहार रही है।। ©राजेश कुशवाहा ------!! गजल / कोहरा !!----- धुँधला धुँधला शहर लग रहा, सर्द हवा झकझोर रही है। उजले उजले से पर्दों पर, श्यामल परछाई पुकार रही है।। कदम तले है चुपके से आती, नरमी सुर्ख सुर्ख रातो में। ज्यों आँचल में माँ की ममता, वो हाथों को फेर रही है।।