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Sunita D Prasad
#जब मिलूँगी..... तुमसे मिलने पर संभवतः न बता पाऊँ दिवस और तिथियों के व्यतीत होने की असमान गति! पर फिर भी यह तय है कि लंबे दिनों का लंबी रातों में परिवर्तित होना अनायास ही नहीं हुआ! कुछ क्षण पुनः जीने की एक तीव्र उत्कंठा के संग ही विदा हो गए मैं कहाँ नकारती हूँ इच्छाओं के प्रति अपना मोह! पर दिवस के अंत में फिर एक फूल के झरने का दुःख धरा वहन नहीं कर पाती कठिन है परिचित स्मृतियों में स्वयं को ही अपरिचित पाना! तुम भी तो जानते हो कि किसी भी भाषा के लिए आसान नहीं है हृदय से विस्थापित प्रेम की मंथर पीड़ा को आजीवन ढोना! जब मिलूँगी तो तुम्हारे कंधे से सिर टिकाकर शायद तुम्हें समझा पाऊँ एक पुष्प की चिरकालीन यात्रा प्रेम की विरामचिह्नों रहित भाषा और धरा के दुःख!! --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #जब मिलूँगी..... तुमसे मिलने पर संभवतः न बता पाऊँ दिवस और तिथियों के व्यतीत होने की असमान गति! पर फिर भी यह तय है कि लंबे दिनों का
#जब मिलूँगी..... तुमसे मिलने पर संभवतः न बता पाऊँ दिवस और तिथियों के व्यतीत होने की असमान गति! पर फिर भी यह तय है कि लंबे दिनों का
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#यदि दुःख कहने भर के होते..... कुछ समय से प्रकृति के थोड़ा और करीब आई हूँ अब दक्षिणायन होते सूर्य को अपनी काया पर महसूस कर पाती हूँ उत्तर के समाधिस्थ पर्वत धरा का सारा शीत ओढ़े हैं मेरी त्वचा के रोएँ शीत से जड़ हो आई उसकी देह को अब महसूस कर पाते हैं विशाल जलनिधियाँ समजलवायु की हिमायती रहीं पर फिर भी कहाँ बाँध पाईं वे किसी एक ऋतु को! मैं नहीं समझ पाती हूँ प्रेम और दुःख के मध्य का संबंध! जबकि प्रकृति का सानिध्य मुझे विवश करता है प्रतिस्पर्श रूपी तुम्हारे चुम्बनों को फिर से अनुभूत करने के लिए तब मैं अज्ञेय की क्लिन्न, सूनी, शिशिर भीगी रात को सीने से लगाए सोचती हूँ कि क्या दुःख केवल उतना ही है जितना दिखा या बताया गया....? --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #यदि दुःख कहने भर के होते..... कुछ समय से प्रकृति के थोड़ा और करीब आई हूँ अब दक्षिणायन होते सूर्य को अपनी काया पर महसूस कर पाती हूँ
#यदि दुःख कहने भर के होते..... कुछ समय से प्रकृति के थोड़ा और करीब आई हूँ अब दक्षिणायन होते सूर्य को अपनी काया पर महसूस कर पाती हूँ
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#कुछ देर और...... अच्छा होता यदि समय कुछ देर के लिए अगत हुआ होता! तो मैं कुछ और देर तुम्हारे पास ठहर पाती कुछ श्वेत पुष्प और झर पाए होते अभिव्यंजनाओं में घुल पातीं कुछ और लक्षणाएँ कविता तब इतनी बिंबरहित न होती! यदि समय कुछ देर के लिए ही अगत हुआ होता! तो शायद एक सदी न गुजरी होती.....कहानी में! जंगल कुछ और अधिक देर सोख पाते जल बारिश चुपचाप यों नदी नहीं हुई होती! देखो! इस बार जो मिलो तो मत झुठलाना कि बारिशों ने कभी जंगलों की पुकार को अनसुना किया! --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #कुछ देर और...... अच्छा होता यदि समय कुछ देर के लिए अगत हुआ होता! तो मैं कुछ और देर तुम्हारे पास ठहर पाती कुछ श्वेत पुष्प और झर पाए होते
#कुछ देर और...... अच्छा होता यदि समय कुछ देर के लिए अगत हुआ होता! तो मैं कुछ और देर तुम्हारे पास ठहर पाती कुछ श्वेत पुष्प और झर पाए होते
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#चाहते हुए भी....... चाहते हुए भी मैं नहीं समझा पाई तुम्हें मोह और प्रेम के मध्य का अंतर या फिर तुम मानना ही नहीं चाहते कि लालसाओं की ललक उनके अप्राप्य तक ही रही उत्कट आकाश को न छू पाने की पर्वतों की हताशा हरे रहकर भी फलहीन वृक्षों का दुःख दिन-ब-दिन गहराता गया और मैं चाहते हुए भी नहीं लिख पाई इनकी व्यथा! मैं नहीं भेद पाती हूँ तुम्हारे चुम्बनों का अदृश्य वृत! मेरी भाषा हर बार लौटकर तुम्हारी पीठ से आ सटती है और प्रेम से अधिक कुछ लिख ही नहीं पाती! अच्छा होता यदि सूरज हर साँझ अस्त हो गया होता तो रातें शायद इतनी नहीं तपतीं अब भलीभाँति समझ पाती हूँ कि कैसे लिख पाए होंगे भाषाविहीन होने पर भी कवि ऐसे लंबे-लंबे ग्रंथ? --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #चाहते हुए भी....... चाहते हुए भी मैं नहीं समझा पाई तुम्हें मोह और प्रेम के मध्य का अंतर या फिर तुम मानना ही नहीं चाहते कि लालसाओं की ललक उनके अप्राप्य तक ही रही उत्कट
#चाहते हुए भी....... चाहते हुए भी मैं नहीं समझा पाई तुम्हें मोह और प्रेम के मध्य का अंतर या फिर तुम मानना ही नहीं चाहते कि लालसाओं की ललक उनके अप्राप्य तक ही रही उत्कट
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हे देव! यह तय है कि इस बार प्रकाशपर्व पर तुम्हारे स्वागत में नहीं लाऊँगी चढ़ाने के लिए जल न ही पुष्पों से सुसज्जित होगी कोई थाल न करूँगी कोई दीप प्रज्ज्वलित और न ही चंदन घिस-घिसकर मलूँगी देह पर तुम्हारे! इस बार जो होगा, वही अर्पण भी करूँगी, देव! इसलिए पलकों पर रख लाऊँगी प्रेमियों की मनुहारें अधरों पर होंगी माँओं की प्रार्थनाएँ नेत्रों में प्रेमिकाओं की प्रतीक्षाएँ और कँधों पर दारुण पुकारों की अनसुनी व्यथाएँ ! जानती हूँ, तुम हौले-से मुस्करा भर दोगे और प्रतिफल स्वरूप समग्र प्रार्थनाएँ, मनुहारें, प्रतीक्षाएँ एवं पुकारें कपास हो उठेंगी। हाँ देव! इस बार भीतर इतने गहरे बसना कि तिमिर पूर्णतःअस्तित्वहीन हो जाए!! विनती! --सुनीता डी प्रसाद💐💐 मेरे समस्त मित्रों को धनतेरस और दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई। ईश्वर! आपके हृदय में न केवल उतरें बल्कि ऐसे बसें कि आप स्वयं ही प्रकाश का स्रोत बन जाएँ। 'अत्त दीप भवः' हे देव! यह तय है कि इस बार प्रकाशपर्व पर तुम्हारे स्वागत में नहीं लाऊँगी चढ़ाने के लिए जल न ही पुष्पों से सुसज्जित होगी कोई थाल
हे देव! यह तय है कि इस बार प्रकाशपर्व पर तुम्हारे स्वागत में नहीं लाऊँगी चढ़ाने के लिए जल न ही पुष्पों से सुसज्जित होगी कोई थाल
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#सामर्थ्य..... मैं उतना नहीं लिख पाई हूँ जितना मेरे भीतर अनकहा छूट गया है तो क्या जितना लिख पाई हूँ वह मेरा सामर्थ्य नहीं असामर्थ्य है बहुत कुछ न कह पाने का? बहुत मनाती हूँ कि यदि कवि होती तो अपनी ही भाषा और शिल्प में बड़ी सहजता से दुःखों को फूल कह देती! पर मैं कोई कवि नहीं! शायद तभी दुःखों को तराश ही नहीं पाई अधिकतर इच्छाएँ मेरे कंठ तक ही ठहर गईं मेरे अपने नदी-नाले जंगल पर्वत भी नहीं हुए कि जिनकी आड़ में लिख सकती अपनी वेदना जीवन में हमने प्राप्त से अधिक अप्राप्त को स्मरण रखा संभवतः तभी अंतिम समय के लिए हमने केवल दुःख ही अधिक संचित किए। --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #सामर्थ्य..... मैं उतना नहीं लिख पाई हूँ जितना मेरे भीतर अनकहा छूट गया है तो क्या जितना लिख पाई हूँ वह मेरा सामर्थ्य नहीं असामर्थ्य है बहुत कुछ न कह पाने का?
#सामर्थ्य..... मैं उतना नहीं लिख पाई हूँ जितना मेरे भीतर अनकहा छूट गया है तो क्या जितना लिख पाई हूँ वह मेरा सामर्थ्य नहीं असामर्थ्य है बहुत कुछ न कह पाने का?
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#काँधे से अधरों तक..... समग्र की अभिलाषा में बहुत कुछ मध्य में ही छूट गया जबकि न प्रारब्ध वश में है और न ही अंत! अचंभित होती हूँ इच्छाओं की हठधर्मिता पर कि कैसे अपने अवसान पर क्षीण होने की बजाय उग्र हो उठती हैं उस समय शरतचंद्र जी के देवदास का चरित्र भुवन मोहन चौधरी मुझे देख मुस्करा देता है। देह की देहरी लाँघ मन चार भिन्न दिशाओं में बँटा! सुनो, बिल्कुल कठिन नहीं था तुम्हारे काँधे से अधरों तक का सफर बस कुल जमा चार दिशाओं का असमंजस भर ही तो लगा!! --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #काँधे से अधरों तक..... समग्र की अभिलाषा में बहुत कुछ मध्य में ही छूट गया जबकि न प्रारब्ध वश में है और न ही अंत! अचंभित होती हूँ इच्छाओं की हठधर्मिता पर
#काँधे से अधरों तक..... समग्र की अभिलाषा में बहुत कुछ मध्य में ही छूट गया जबकि न प्रारब्ध वश में है और न ही अंत! अचंभित होती हूँ इच्छाओं की हठधर्मिता पर
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#एक ऋतु का शोक..... मैंने 'अंतिम' शब्द की व्यथा का स्वाद चखा है! मेरी पीठ पर जहाँ तुम्हारे अंतिम संदेश का असाध्य गुरुत्व है वहीं मेरी स्वयं की भाषा लुप्त है पर मुझे समझना चाहिए था कि अथक प्रयासों के बावजूद भी जल पर ठहर ही नहीं सकते नाव के निशान! शायद तभी दुःख, सुख से बड़े तो हुए पर इतने भी नहीं कि रोक पाते कोई भी एक ऋतु! तुम्हारे समस्त स्पर्श और चुंबन अब नदी की सुखी तलहटी से मेरे अधरों पर चटक आए हैं स्मृतियों में से तुम्हारे दृश्य धूमिल हो गए हैं। तुम ही कहो एक ऋतु अंततः कितना शोक मनाती! --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #एक ऋतु का शोक..... मैंने 'अंतिम' शब्द की व्यथा का स्वाद चखा है! मेरी पीठ पर जहाँ तुम्हारे अंतिम संदेश का असाध्य गुरुत्व है
#एक ऋतु का शोक..... मैंने 'अंतिम' शब्द की व्यथा का स्वाद चखा है! मेरी पीठ पर जहाँ तुम्हारे अंतिम संदेश का असाध्य गुरुत्व है
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#भाषा के दुःख..... ऐसा नहीं था कि हम एक-दूसरे के दुःख समझ पाने में अक्षम थे पर संवादहीनता के चलते समझ की भाँति ही हमारी भाषा भी कम पड़ गई। अभिव्यक्ति में विफलता ही शायद भाषा का असाध्य दुःख रहा जिसे समझ पाना चित्र से बाहर बह आए रंगों को पुनः उसकी परिरेखाओं में समेटने जितना असंभव है। क्या भाषा के रहते भाषाविहीन हो जाना किसी त्रासदी से कम है! त्रासदियाँ केवल घटनाओं के घटने से ही नहीं बल्कि अपेक्षित के अघटित होने से भी हुईं। तुम्हारे स्पर्श भी किसी अघटित घटना की भाँति देह से अधिक मेरी भाषा में घुले हैं मैं स्वयं को भाषा से पूर्व की कोई कविता पाती हूँ जिसका सबसे बड़ा दुःख भाषा के अभाव में अव्यक्त रह जाना है।। --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #भाषा के दुःख..... ऐसा नहीं था कि हम एक-दूसरे के दुःख समझ पाने में अक्षम थे पर संवादहीनता के चलते समझ की भाँति ही
#भाषा के दुःख..... ऐसा नहीं था कि हम एक-दूसरे के दुःख समझ पाने में अक्षम थे पर संवादहीनता के चलते समझ की भाँति ही
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#कहानी का तीसरा अंत..... जब भी कल्पनाओं में यथार्थ के विकृत रूप की अनुभूति हुई मुझे मुक्तिबोध की उपेक्षित कविताएँ स्मरण हो आईं जिनका सत्य केवल इतना ही है कि वे न तो पूर्णतः यथार्थ हो पाईं और न ही कल्पना। दुरूह है यह मध्य की स्थिति! जैसे कई सामंजस्यों का गठजोड़। मुझे बताया गया था कि प्रेम एक सहज विषय है पर हर बार इसमें अनुत्तीर्ण होना विषय की दुर्बोधता है या फिर मेरी ही बोधहीनता! हर कहानी के भी कहाँ केवल दो ही अंत हुए! तीसरा अंत सदैव अप्रत्याशित ही रहा। --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #कहानी का तीसरा अंत..... जब भी कल्पनाओं में यथार्थ के विकृत रूप की अनुभूति हुई मुझे मुक्तिबोध की उपेक्षित कविताएँ स्मरण हो आईं जिनका सत्य केवल इतना ही है
#कहानी का तीसरा अंत..... जब भी कल्पनाओं में यथार्थ के विकृत रूप की अनुभूति हुई मुझे मुक्तिबोध की उपेक्षित कविताएँ स्मरण हो आईं जिनका सत्य केवल इतना ही है
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