#चाहते हुए भी....... चाहते हुए भी मैं नहीं समझा पाई तुम्हें मोह और प्रेम के मध्य का अंतर या फिर तुम मानना ही नहीं चाहते कि लालसाओं की ललक उनके अप्राप्य तक ही रही उत्कट आकाश को न छू पाने की पर्वतों की हताशा हरे रहकर भी फलहीन वृक्षों का दुःख दिन-ब-दिन गहराता गया और मैं चाहते हुए भी नहीं लिख पाई इनकी व्यथा! मैं नहीं भेद पाती हूँ तुम्हारे चुम्बनों का अदृश्य वृत! मेरी भाषा हर बार लौटकर तुम्हारी पीठ से आ सटती है और प्रेम से अधिक कुछ लिख ही नहीं पाती! अच्छा होता यदि सूरज हर साँझ अस्त हो गया होता तो रातें शायद इतनी नहीं तपतीं अब भलीभाँति समझ पाती हूँ कि कैसे लिख पाए होंगे भाषाविहीन होने पर भी कवि ऐसे लंबे-लंबे ग्रंथ? --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #चाहते हुए भी....... चाहते हुए भी मैं नहीं समझा पाई तुम्हें मोह और प्रेम के मध्य का अंतर या फिर तुम मानना ही नहीं चाहते कि लालसाओं की ललक उनके अप्राप्य तक ही रही उत्कट