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अबोध_मन//फरीदा
मैं नज़्म कोई सुना रहा था वो बज़्म में मुस्कुरा रहा था। मैं लफ़्ज़ ’अदा’ कर रहा था वो ‘अदा’ से मायने बता रहा था। कंगन को हाथों में घुमाता जाने क्या वो कहना चाह रहा था। झुमको ने गालों को था चूमा, कैसे कैसे मुझे वो बहका रहा था। ख़्याल पढ़ते भी ख़्याल रुसवा, वो इश्क़ से मुझे भरमा रहा था। ... ©अबोध_मन//फरीदा #फ़क़तफरीदा #अबोध_मन #अबोध_ग़ज़ल #चाँद_इश्क़ #she_fireflies_moon_herlove
अबोध_मन//फरीदा
मैंने एक रोज़ तुम्हें अपने क़रीब आते देखा, उस दिन के बाद मैं जग से घबराना भूल गयी। मैने एक रोज़ तुम्हें भोर संग खिलते देखा, उस दिन के बाद मैं दुःख से मुरझाना भूल गयी। मैने एक रोज़ तुम्हें सहज धूप में चलते देखा, उस दिन के बाद मैं छाँव का ठिकाना भूल गयी। मैने एक रोज़ तुम्हें जब मुस्कुराते हुए देखा, उस दिन के बाद मैं दर्द में आँसू बहाना भूल गयी। मैने एक रोज़ तुम्हें बारिश में भीगते देखा, उस दिन के बाद मैं अपना आप तपाना भूल गयी। मैने एक रोज़ तुम्हें कोई ख़्वाब सजाते देखा, उस दिन के बाद मैं आप रातों को जगाना भूल गयी। मैने एक रोज़ तुम्हें मौसमों सा बदलते देखा, उस दिन के बाद मैं रात का आना जाना भूल गयी। फिर मैने एक रोज़ तुम्हें ख़ुद से दूर जाते देखा, उस दिन के बाद मैं गैरों को अपना बनाना भूल गयी। अबोध_मन//’फरीदा’ ©अवरुद्ध मन #अबोध_मन #अबोध_ग़ज़ल #खोयाक्या_पायाक्या #कच्चा_घड़ा_था_सोहनी
अबोध_मन//फरीदा
ये शाम ख़्वाब सी, ख्याल तेरे हमनवाँ, धनक के रंग पहने खिल रहा ये आसमाँ। सभी फिराक में हैं अपनी वापसी को, जो गए भटक उनका कहाँ कोई ख़ैर-ख्वाँ। उसे आना ही नहीं, उम्मीद ला-हासिल, गुज़र चुका इसी राह से कारवाँ-दर-कारवाँ। इश्क़ खुश्बू है जो महके इस करीने से, पाक हो जाती हवा गुज़रे जो छूकर अर्ग़वाँ। शाम की दहलीज़ पर ज़र-फ़िशाँ यादें हैं, इक चाँद रोएगा चाँद देख, हर सूं आब-ए-रवाँ। “मदीहा” ग़ज़लों में लज़्ज़त तो होगी ही, कि उनमें ज़िक्र उसका आ ही जाता जहाँ-तहाँ। –अबोध_मन//“फरीदा” . ©अवरुद्ध मन ख़्वाब सी, ख्याल तेरे हमनवाँ, धनक के रंग पहने खिल रहा ये आसमाँ। सभी फिराक में है अपनी वापसी को, जो गए भटक उनका कहाँ कोई ख़ैर-ख्वाँ। उसे आना ही नहीं, उम्मीद ला-हासिल, गुज़र चुका इसी राह से कारवाँ-दर-कारवाँ।
ख़्वाब सी, ख्याल तेरे हमनवाँ, धनक के रंग पहने खिल रहा ये आसमाँ। सभी फिराक में है अपनी वापसी को, जो गए भटक उनका कहाँ कोई ख़ैर-ख्वाँ। उसे आना ही नहीं, उम्मीद ला-हासिल, गुज़र चुका इसी राह से कारवाँ-दर-कारवाँ।
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तू आ लिपटना मुझसे किसी शाम की तरह। नगमा गुनगुनाना, अपने नाम की तरह। ख़्वाब तुम सजाना, हँसी चाँद की तरह। रश्क करे शहर भी, ठहर ख़य्याम की तरह। ‘फ़क़त’ उसके रहना, हाँ! गुलफ़ाम की तरह। ... अबोध_मन/’फरीदा’ ©अवरुद्ध मन तू आ लिपटना मुझसे किसी शाम की तरह। नगमा गुनगुनाना, अपने नाम की तरह। ख़्वाब तुम सजाना, हँसी चाँद की तरह।
तू आ लिपटना मुझसे किसी शाम की तरह। नगमा गुनगुनाना, अपने नाम की तरह। ख़्वाब तुम सजाना, हँसी चाँद की तरह।
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उनके दीदार की तलब में छत पे आता होगा चाँद, उनके रुख़सार के तिल पे अटक जाता होगा चाँद। साँझ के आते ही; पकड़ उसका हाथ, पास बिठा अपने ही इश्क़ के अफसाने दोहराता होगा चांद। बैरी बन; आवारा बादलों की ओट में छिप करके, नटखट अठखेली कर इश्क़ को सताता होगा चाँद। शब-ए-दैजूर में जब उनके मिलन की आस न जगी, इश्क़ करने वालों की आँखों में मुस्काता होगा चाँद। बचपन में मामा बन वो था साथ–साथ अपने चला, उस दहलीज़ के पार; कई रिश्ते निभाता होगा चाँद। सुना है ‘मदीहा’ सा ही वो भी घटता बढ़ता रहता है, कि बिछड़ना अपनो का यूँ भूल न पाता होगा चाँद। अबोध_मन//‘फरीदा’ ©अवरुद्ध मन उनके दीदार की तलब में छत पे आता होगा चाँद, उनके रुख़सार के तिल पे अटक जाता होगा चाँद। साँझ के आते ही; पकड़ उसका हाथ, पास बिठा अपने ही इश्क़ के अफसाने दोहराता होगा चांद। बैरी बन; आवारा बादलों की ओट में छिप करके, नटखट अठखेली कर इश्क़ को सताता होगा चाँद।
उनके दीदार की तलब में छत पे आता होगा चाँद, उनके रुख़सार के तिल पे अटक जाता होगा चाँद। साँझ के आते ही; पकड़ उसका हाथ, पास बिठा अपने ही इश्क़ के अफसाने दोहराता होगा चांद। बैरी बन; आवारा बादलों की ओट में छिप करके, नटखट अठखेली कर इश्क़ को सताता होगा चाँद।
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