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Bhakti Kalptaru

|| विदुर नीति ||

असूयैकपदं मृत्युरतिवाद: श्रियो वधः ।
    अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवस्त्रयः ।।

भावार्थ:- असूया दोष का होना ( दूसरे के गुणों में भी दोष देखने का स्वभाव होना) मृत्यु के समान है, कठोर बोलना और निंदा करना लक्ष्मी (ऐश्वर्य और सद्बुद्धि) का नाशक है। सुनने की इच्छा का अभाव और गुरु सेवा का अभाव, शीघ्रता करना (अर्थार्थ हर कार्य को हड़बड़ी में करना), और स्वयं की प्रशंसा करना (अर्थार्थ अपने मुहँ मियां मिट्ठू बनना),  ये तीन दोष विद्या के शत्रु हैं। अर्थार्थ इन तीन दोषों के कारण विद्या प्राप्त करने में विघ्न होता है। 

आलस्यं मदमोहौ च चापलं गोष्ठीरेव च । 
   स्तब्धता चाभिमानित्वं तथा त्या गित्वमेव च ।
       एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थीनां मताः ।।

भावार्थ:- आलस्य में पड़े रहना, मादक द्रव्यों का सेवन, मोह /आसक्ति, चंचलता/ उद्दंडता, व्यर्थ बातों में समय बिताना, अभिमान और लोभ ये सात विद्यार्थियों के लिए सदा ही दोष माने गए हैं। 

सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्  ।
    सुखार्थी वा त्यजे्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ।।

भावार्थ:- सुख चाहने वाले को विद्या कहां से मिले? विद्या चाहने वाले को सुख नहीं है। सुखाभिलाषी को विद्या छोड़ देनी चाहिए और विद्या प्राप्ति की इच्छा वाले को सुख। #vidur_niti #विदुर_नीति

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