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जैसे कान्हा की बाँसुरी में सदैव राधा की पुकार थी, उसी तरह मेरी कविता को उसकी नज़रों का इंतिज़ार है। (अनुशीर्षक में पढ़ें) काफ़ी वक़्त हो गया न? मैंने उस 'जाने पहचाने' अजनबी के बारे में कुछ लिखा ही नहीं! वो क्या है ना, कि हमारी बातें अब बस ख़यालों में होती है। उसे अब फ़ुरसत ही कहाँ कि पूछ लूँ कि उसकी 'जान', oops! नहीं! पागल दोस्त कैसी है? अरे! वो जान कहने वाली गलती हो जाती है। क्योंकि 'जान' सुनने को मेरे कान तरस गए हैं। मेरे पास उसकी कोई तस्वीर भी नहीं है। उसने कभी अपनी तस्वीर मुझे भेजी ही नहीं। हमारा नाता बस रूहानी रहा। उसे पसंद थी मेरी सादगी और मुझे लुभाता उसका भोलापन। बस इसी में मन संतुष्ट रहता था। एक्चुअली, मेर
काफ़ी वक़्त हो गया न? मैंने उस 'जाने पहचाने' अजनबी के बारे में कुछ लिखा ही नहीं! वो क्या है ना, कि हमारी बातें अब बस ख़यालों में होती है। उसे अब फ़ुरसत ही कहाँ कि पूछ लूँ कि उसकी 'जान', oops! नहीं! पागल दोस्त कैसी है? अरे! वो जान कहने वाली गलती हो जाती है। क्योंकि 'जान' सुनने को मेरे कान तरस गए हैं। मेरे पास उसकी कोई तस्वीर भी नहीं है। उसने कभी अपनी तस्वीर मुझे भेजी ही नहीं। हमारा नाता बस रूहानी रहा। उसे पसंद थी मेरी सादगी और मुझे लुभाता उसका भोलापन। बस इसी में मन संतुष्ट रहता था। एक्चुअली, मेर
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हमारा प्रेम कुछ विचित्र सा ज़रूर है, पर बनावटी नहीं। घाव देकर मरहम लगाने वाला नहीं पर घाव देकर, खुद मरहम बनाना सिखाता है। प्यार में जानू, शोना कहने वाला नहीं, पर यथार्थ में साथ देने वाला है। (अनुशीर्षक में पढ़ें) तुम सोचते होंगे ना कि मैं आजकल तुम्हें परेशान क्यों नहीं करती हूँ? हाँ, हर रोज़ तो नहीं मेरा ख़याल तुम्हारे ज़ेहन में आता होगा पर जब भी तुम यादों का पिटारा लिए बैठते हो ना, मैं जानती हूँ वहाँ मेरा ज़िक्र ज़रूर होता है। चिंतित होकर, पूछने को तुम फ़ोन उठा के मेसेज भी लिखते हो; पर मर्द हो ना, अपनी अना का ख़याल कर रुक जाते हो और मिटा देते हो वो फ़िक्र करने वाली पंक्तियाँ। वक़्त ज़रा थम कर रह जाता है उस पल में, जब तुम्हारी नज़रें मेरी फ़ोटो तक रहीं होतीं हैं, वो फ़ोटो जो मैंने सालों से बदली नहीं। कहते
तुम सोचते होंगे ना कि मैं आजकल तुम्हें परेशान क्यों नहीं करती हूँ? हाँ, हर रोज़ तो नहीं मेरा ख़याल तुम्हारे ज़ेहन में आता होगा पर जब भी तुम यादों का पिटारा लिए बैठते हो ना, मैं जानती हूँ वहाँ मेरा ज़िक्र ज़रूर होता है। चिंतित होकर, पूछने को तुम फ़ोन उठा के मेसेज भी लिखते हो; पर मर्द हो ना, अपनी अना का ख़याल कर रुक जाते हो और मिटा देते हो वो फ़िक्र करने वाली पंक्तियाँ। वक़्त ज़रा थम कर रह जाता है उस पल में, जब तुम्हारी नज़रें मेरी फ़ोटो तक रहीं होतीं हैं, वो फ़ोटो जो मैंने सालों से बदली नहीं। कहते
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कभी तुम भी तो सोचो ना.. कि क्या होता ग़र हम पहले मिले होते?.... ..नादाँ सी उस उम्र में, मैं होती तुम्हारा पहला प्यार और तुम मेरे जीवन का पहला दुलार। (अनुशीर्षक में पढ़ें) एक दशक बस अंत होने को है और मैं इस 'नियरिंग थर्टीज़' की उम्र में 'टीनएजर्स' की भाँति सोच रही हूँ 'हमारे' बारे में। काश! हम उसी किशोरावस्था में एक दूसरे से अजनबी बनकर मिले होते। तब इंटरनेट का ज़माना बस शुरू ही हुआ था। सबके घर कंप्यूटर भी न हुआ करता था और अगर था भी तो इंटरनेट जैसी वस्तु प्रिविलेज मानी जाती थी। साइबर कैफ़े में ३० मिनट इंटरनेट इस्तेमाल करने के लिए दस रुपये लगते थे। तब न तो था स्मार्ट फोन और न व्हाट्सएप्प जैसा कोई सुपरफास्ट बातों का मीडियम। था तो बस yahoo मैसेंजर और gtalk। या फिर e-
एक दशक बस अंत होने को है और मैं इस 'नियरिंग थर्टीज़' की उम्र में 'टीनएजर्स' की भाँति सोच रही हूँ 'हमारे' बारे में। काश! हम उसी किशोरावस्था में एक दूसरे से अजनबी बनकर मिले होते। तब इंटरनेट का ज़माना बस शुरू ही हुआ था। सबके घर कंप्यूटर भी न हुआ करता था और अगर था भी तो इंटरनेट जैसी वस्तु प्रिविलेज मानी जाती थी। साइबर कैफ़े में ३० मिनट इंटरनेट इस्तेमाल करने के लिए दस रुपये लगते थे। तब न तो था स्मार्ट फोन और न व्हाट्सएप्प जैसा कोई सुपरफास्ट बातों का मीडियम। था तो बस yahoo मैसेंजर और gtalk। या फिर e-
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कविता की डोर पकड़कर झूलती हूँ तुम्हारी भूली मोहब्बत में, ग़ज़ल के दामन में अपने दर्द बाँट लेती हूँ। उन लम्हों की दास्ताँ लिख लेती हूँ जो बीते नहीं हमारे बीच, पर मेरी कल्पना में हमेशा से 'हमारी कहानी के पहलू' बनकर साँसें ले रहे हैं। (शेष कैप्शन में पढ़ें) हाँ, तुम हो यहीं, मेरे इनबॉक्स के पुराने मेसेजीज़ में, छुपे हुए से कहीं। तुम्हारे साथ बीते उन पलों को मिटाने की हिम्मत मैं आज तक जुटा नहीं पाई हूँ। तुम्हें ब्लॉक करने का साहस मुझमे न तब था और न आज है, पर ज़रूरी था तुम्हारा न दिखना मुझे। किसी न किसी तरीके से तुम्हारी ख़ैरियत का पता तो आज भी लगा ही लेती हूँ। बस अब तुमसे बात करने से कतराती हूँ। सोचती रहती हूँ कि क्या तुम्हें भी मेरी याद सताती है? काश! कोई इशारा तुम्हारी ओर से भी मिल जाता। क्या तुम्हारा भी मन झिझकता है मुझे मेसेज करने से? जानती हूँ
हाँ, तुम हो यहीं, मेरे इनबॉक्स के पुराने मेसेजीज़ में, छुपे हुए से कहीं। तुम्हारे साथ बीते उन पलों को मिटाने की हिम्मत मैं आज तक जुटा नहीं पाई हूँ। तुम्हें ब्लॉक करने का साहस मुझमे न तब था और न आज है, पर ज़रूरी था तुम्हारा न दिखना मुझे। किसी न किसी तरीके से तुम्हारी ख़ैरियत का पता तो आज भी लगा ही लेती हूँ। बस अब तुमसे बात करने से कतराती हूँ। सोचती रहती हूँ कि क्या तुम्हें भी मेरी याद सताती है? काश! कोई इशारा तुम्हारी ओर से भी मिल जाता। क्या तुम्हारा भी मन झिझकता है मुझे मेसेज करने से? जानती हूँ
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In life, you’ll come across a lot of suffering and heartache that’ll torment your soul to a breaking point. You’ll have stories to narrate of your struggles and survival. Your senile self will yearn for a pair of ears to hear you pour. In that moment, you’ll remember my annoying presence and shed a tear or two. (Continued in caption) In life, you’ll come across a lot of suffering and heartache that’ll torment your soul to a breaking point. You’ll have stories to narrate of your struggles and survival. Your senile self will yearn for a pair of ears to hear you pour. In that moment, you’ll remember my annoying presence and shed a tear or two. Wondering what would life be if we had stayed in touch. With jittery fingers you’ll login to Instagram; the place where we once shared tons of fun memories. Only a glimpse of my
In life, you’ll come across a lot of suffering and heartache that’ll torment your soul to a breaking point. You’ll have stories to narrate of your struggles and survival. Your senile self will yearn for a pair of ears to hear you pour. In that moment, you’ll remember my annoying presence and shed a tear or two. Wondering what would life be if we had stayed in touch. With jittery fingers you’ll login to Instagram; the place where we once shared tons of fun memories. Only a glimpse of my
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सोशल मीडिया के इस ज़माने में जितना आसान है किसी से कनेक्ट होना, उतना ही आसान है किसी अपने से यहाँ डिसकनेक्ट हो जाना। (शेष अनुशीर्ष में पढ़ें) सोशल मीडिया के इस ज़माने में जितना आसान है किसी से कनेक्ट होना, उतना ही आसान है किसी अपने से यहाँ डिसकनेक्ट हो जाना। कभी फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, यौरकोट, यूट्यूब आदि जैसे प्लेटफार्म पर मैं कुछ न कुछ देखती, पढ़ती, सुनती रहती हूँ। इतवार के दिन, अलसाई सी ग्रीष्म दोपहरी में, गर्मी से परेशान, मैं बालकनी के दरवाज़े खोलकर, बिस्तर के हैडबोर्ड पर सिर टिका कर, अपना फ़ोन लिए बैठ गई। कभी हैडबोर्ड पर उल्टे पाँव टिका लेट जाती तो कभी तकिये पर सपोर्ट लेके बैठ जाती। बिजली भी load shedding की वजह से बंद थी औ
सोशल मीडिया के इस ज़माने में जितना आसान है किसी से कनेक्ट होना, उतना ही आसान है किसी अपने से यहाँ डिसकनेक्ट हो जाना। कभी फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, यौरकोट, यूट्यूब आदि जैसे प्लेटफार्म पर मैं कुछ न कुछ देखती, पढ़ती, सुनती रहती हूँ। इतवार के दिन, अलसाई सी ग्रीष्म दोपहरी में, गर्मी से परेशान, मैं बालकनी के दरवाज़े खोलकर, बिस्तर के हैडबोर्ड पर सिर टिका कर, अपना फ़ोन लिए बैठ गई। कभी हैडबोर्ड पर उल्टे पाँव टिका लेट जाती तो कभी तकिये पर सपोर्ट लेके बैठ जाती। बिजली भी load shedding की वजह से बंद थी औ
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रिमझिम करते बादल, गीली मिट्टी की वो भीनी ख़ुशबू, रात के सन्नाटे में बूंदें बरसने की हल्की आवाज़ और बालकनी में पुराने गानों का साथ! कितना सुखदायक होता है न? आज ऐसी ही इक़ रात है। (अनुशीर्षक में पढ़ें) रिमझिम करते बादल, गीली मिट्टी की वो भीनी ख़ुशबू, रात के सन्नाटे में बूंदें बरसने की हल्की आवाज़ और बालकनी में पुराने गानों का साथ! कितना सुखदायक होता है न? आज ऐसी ही इक़ रात है। बालों को क्लचर से आज़ाद कर, मैं जा बैठी बालकनी में पड़ी उस हल्की भूरी रंग की कुर्सी पर। ज़ुल्फें ऐसे लहलहा रहीं थीं जैसे मौसम के नशे में हवा संग रम जाना चाह रहीं हों। जी भर के ख़ुशियों में झूमना चाह रहीं हों; फिर चाहे जितनी उलझ जाएँ, इसकी परवाह नहीं! फिर चाहे गुत्थी सुलझे ना सुलझे, आज, इस पल में, लापरवाह सी हो गईं थीं।
रिमझिम करते बादल, गीली मिट्टी की वो भीनी ख़ुशबू, रात के सन्नाटे में बूंदें बरसने की हल्की आवाज़ और बालकनी में पुराने गानों का साथ! कितना सुखदायक होता है न? आज ऐसी ही इक़ रात है। बालों को क्लचर से आज़ाद कर, मैं जा बैठी बालकनी में पड़ी उस हल्की भूरी रंग की कुर्सी पर। ज़ुल्फें ऐसे लहलहा रहीं थीं जैसे मौसम के नशे में हवा संग रम जाना चाह रहीं हों। जी भर के ख़ुशियों में झूमना चाह रहीं हों; फिर चाहे जितनी उलझ जाएँ, इसकी परवाह नहीं! फिर चाहे गुत्थी सुलझे ना सुलझे, आज, इस पल में, लापरवाह सी हो गईं थीं।
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मन बहलाने को सोच लेती हूँ कि कभी तुम हँसते हुए आँसुओं में मुझे पा लेते होगे, उसी तरह जिस तरह से मैं चाँद को निहारते, उससे बातें करके यह समझ लेती हूँ कि तुम मेरी ख़ामोशी सुन रहे हो कहीं। (अनुशीर्षक में पढ़ें) ना.. अब मोहब्बत नहीं मुझे तुमसे.. बस ज़रा सी फ़िक्र रहती है। जब भी जी बोझिल होने लगता है, मैं ढूंढती हूँ कोई निशान, कोई चिन्ह, तुम्हारे होने का कोई एहसास खोजती हूँ। जब मिल जाती है ज़रा सी भी ख़बर तुम्हारी, तो तसल्ली मिल जाती है कि तुम कहीं साँसें ले रहे हो। नहीं जानती कि तुम ख़ुश हो या नहीं, पर दिलासा मिल जाता है यह जानकर कि तुम कहीं हो, इसी धरती पर, इसी आसमाँ तले..जी रहे हो अपनी ज़िंदगी, एक जुदा से रास्ते पर।
ना.. अब मोहब्बत नहीं मुझे तुमसे.. बस ज़रा सी फ़िक्र रहती है। जब भी जी बोझिल होने लगता है, मैं ढूंढती हूँ कोई निशान, कोई चिन्ह, तुम्हारे होने का कोई एहसास खोजती हूँ। जब मिल जाती है ज़रा सी भी ख़बर तुम्हारी, तो तसल्ली मिल जाती है कि तुम कहीं साँसें ले रहे हो। नहीं जानती कि तुम ख़ुश हो या नहीं, पर दिलासा मिल जाता है यह जानकर कि तुम कहीं हो, इसी धरती पर, इसी आसमाँ तले..जी रहे हो अपनी ज़िंदगी, एक जुदा से रास्ते पर।
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मेरी डायरी के पन्नों में से एक छोटा सा, पर अहम हिस्सा। सन् २०१३, जून का महीना। कभी गरजती शाम और थरथराती रात, तो कभी भीनी सुगंध में लथपथ मिट्टी को छूते रिमझिम करते बादालों में से झाँकता सूरज; संदली सुबह का आग़ाज़। प्रेम में डूबे सूरज का बादालों से चुपके से मिलना, और इसी प्रेम में पनपा प्रेम का प्रतीक, इंद्रधनुष! (शेष अनुशीर्षक में पढ़ें) मेरी डायरी के पन्नों में से एक छोटा सा, पर अहम हिस्सा। सन् २०१३, जून का महीना। कभी गरजती शाम और थरथराती रात, तो कभी भीनी सुगंध में लथपथ मिट्टी को छूते रिमझिम करते बादालों में से झाँकता सूरज; संदली सुबह का आग़ाज़। प्रेम में डूबे सूरज का बादालों से चुपके से मिलना, और इसी प्रेम में पनपा प्रेम का प्रतीक, इंद्रधनुष! तुम इसी इंद्रधनुष से थे मेरे लिए। काले बादालों जैसी क़िस्मत और झाँकतें सूरज जैसी ज़िंदगी की छोटी छोटी खुशियों के बीच, इस जीवन को संवारने वाला, मेरा फ़रिश्ता! कॉलेज का आखिरी साल शुरू होने
मेरी डायरी के पन्नों में से एक छोटा सा, पर अहम हिस्सा। सन् २०१३, जून का महीना। कभी गरजती शाम और थरथराती रात, तो कभी भीनी सुगंध में लथपथ मिट्टी को छूते रिमझिम करते बादालों में से झाँकता सूरज; संदली सुबह का आग़ाज़। प्रेम में डूबे सूरज का बादालों से चुपके से मिलना, और इसी प्रेम में पनपा प्रेम का प्रतीक, इंद्रधनुष! तुम इसी इंद्रधनुष से थे मेरे लिए। काले बादालों जैसी क़िस्मत और झाँकतें सूरज जैसी ज़िंदगी की छोटी छोटी खुशियों के बीच, इस जीवन को संवारने वाला, मेरा फ़रिश्ता! कॉलेज का आखिरी साल शुरू होने
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Social media used to be my escape from real life. I would forget the pain for a while. It turned out to be an effective drug. Until, I got addicted to it. And now, I’m lost. I find solace no- where. Hurt is out there and here too. The only difference being, a social media friend can manipulate you behind a pretty screen and abandon you any- time without a need for any explanation or feel remorse to have done so. They move on like they had just had a wonderful encounter with a fellow passenger on a train and now it was time to disembark, experience a new town and then board a flight to fresh insights. Leaving their imprints on your heart, they unknowingly wreck you and you lay helplessly wondering, overthinking what more or better you could’ve done to make them stay, just a little longer or mattered enough to atleast deserve a last goodbye. #socialmedia #onlinefriendships #lastgoodbye #yqbaba #latenightmusings #latenightthoughts #drg_diaries