ख़्वाबों के घरौंदे में जीने लगे उम्र के दायरे जब सिमटने लगे, जीते कहाँ अब हकीक़त में आँखों से ख़्वाब जब मिटने लगे। बचपन को दिल से विदा किया, फ़र्ज़ अता जवानी का किया, मासूमियत खोती गई रफ़्तार से, ज़िम्मेदार बन बिखरने लगे। पूछोगे हाल भी सौ दर्द बहेंगे, हाल जैसा हो कुछ भी न कहेंगे, ये वक़्त वो वक़्त है जब बाहर से हँसने अंदर से तड़पने लगे। न माँ के आँचल की ठंडी छाया, न पिता सा साया कोई पाया, ज़िन्दगी के करारे थपेड़े खाए लू में तपके जलने बदलने लगे। कितनी भी चाहत से बनाया उस ज़माने सा घरौंदा बन न पाया, उस ठौर की एक आस ही पाले दिशाविहीन हो भटकने लगे।— % & ♥️ Challenge-909 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें! 😊 ♥️ दो विजेता होंगे और दोनों विजेताओं की रचनाओं को रोज़ बुके (Rose Bouquet) उपहार स्वरूप दिया जाएगा। ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें।