क़ौम की फिक्र अब मुझे सोने ही कहाँ देती है बढ़ती हुई बेबसी अब मुझे रोने ही कहाँ देती है लिख रहा हूं कि शायद क़ौम मेरी जाग जाए पर क़ौम की बेहिशी अब लिखने ही कहाँ देती है जुल्म ओ सितम खामोशी में रहकर सह रहे है तानाशाहों की हुकूमत अब बोलने ही कहाँ देती है हर तरफ से घिर चुके है हम बातिल की किलेबंदी में हुकूमत राज अपने सितम के कहने ही कहाँ देती है