कितना सियाह फ़ैला है ज़िन्दगी के कुछ पन्नों पर और रिक्त है कुछ अध्याय लक्ष्य के प्रति समर्पण पर नाज़ुक हो रहा है प्रतिक्षण धैर्य सिमट रहा सीमा पर प्रिय अप्रिय का इल्म कहाँ जब प्रश्न लगा है जीवन पर कितनी वीरानी छाई है हर गलियाँ हर सड़कों पर मानव स्वच्छंद कैसे हो अब जब पाबंद लगा हो साँसो पर कठिन समय की परछाई आकर बिखर रही धरती पर असीम है मंजर अनहोनी की भय से सहम रही आँखो पर । कितना सियाह फ़ैला है ज़िन्दगी के कुछ पन्नों पर और रिक्त है कुछ अध्याय लक्ष्य के प्रति समर्पण पर नाज़ुक हो रहा है प्रतिक्षण धैर्य सिमट रहा सीमा पर प्रिय अप्रिय का इल्म कहाँ