*मुक्त दिवस पर....* *ऋतु बसंत है कब की बीती, अब तो गरमी खासी है।* *छांह ढूंढती उड़ती फिरती, देख चिरैया प्यासी है।* *आठ महीने सुख से बीते, कमी न दाना पानी की।* *शुरू हुआ गरमी का मौसम, याद आ गई नानी की।* *सुखद दिनों की याद समेटे, मन में बहुत उदासी है।* *बूंद-बूंद पानी को तरसे, देख चिरैया प्यासी है।1* *ताल पोखरे सूख रहे सब, जल का एक निशान नहीं।* *बेहाली में तड़प रही है, ज्यों पंखों में जान नहीं।* *सूखे कंठ न चीं-चीं निकले, जो ध्वनि निकले बासी है।* *कोई पुरसा हाल नहीं है, देख चिरैया प्यासी है।।2* *मानव का कर्तव्य आज यह, उसका तारणहार बने।* *दाना-पानी जगह-जगह रख, उसका पालनहार बने।* *ध्यान रखें मिलकर हम इसका, यह भी धरती वासी है।* *नहीं उठे यह बात कभी फिर, देख चिरैया प्यासी है।।3* *बँधे परिंडों से जल पीकर, आती नई उजासी है।।* *हो कृतज्ञ हमसे वह बोले, नहीं चिरैया प्यासी है।।* *प्रवीण त्रिपाठी, नयी दिल्ली, 01 अप्रैल 2019* *मुक्त दिवस पर....* *ऋतु बसंत है कब की बीती, अब तो गरमी खासी है।* *छांह ढूंढती उड़ती फिरती, देख चिरैया प्यासी है।* *आठ महीने सुख से बीते, कमी न दाना पानी की।* *शुरू हुआ गरमी का मौसम, याद आ गई नानी की।* *सुखद दिनों की याद समेटे, मन में बहुत उदासी है।*