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Anil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8 ।।श्री हरिः।। 16 – भाग्य-भोग 'भगवन! इस जीव का भाग्य-विधान?' कभी-कभी जीवों के कर्मसंस्कार ऐसे जटिल होते हैं कि उनके भाग्य का निर्णय करना चित्रगुप्त के लिये भी कठिन हो जाता है। अब यही एक जीव मर्त्यलोक से आया है। इतने उलझन भरे इसके कर्म है - नरक में, स्वर्ग में अथवा किसी योनि-विशेष में कहाँ इसे भेजा जाय, समझ में नहीं आता। देहत्याग के समय की इसकी अन्तिम वासना भी (जो कि आगामी प्रारब्ध की मूल निर्णायिका होती है) कोई सहायता नहीं देती। वह वासना भी केवल देह की स्
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8 ।।श्री हरिः।। 15 - कलियुग के अन्त में आपने यदि वैज्ञानिक कही जाने वाली कहानियों में से कोई पढी हैं तो देखा होगा कि किस प्रकार दो-चार शती आगे की परिस्थिति का उनमें अनुमान किया जाता है और वह अनुमान अधिकांश निराधार ही होता है। यह कहानी भी उसी प्रकार की एक काल्पनिक अनुमान मात्र प्रस्तुत करती है; किंतु यह सर्वथा निराधार नहीं है। पुराणों में कलियुग के अन्त समय का जो वर्णन है, वह सत्य है; क्योंकि पुराण सर्वज्ञ भगवान् व्यास की कृति है। उनमें भ्रम, प्रमाद सम्भव न
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8 ।।श्री हरिः।। 9 - देखे सकल देव 'भगवन! मैं किसकी आराधना करूं!' वेदाध्ययन पूर्ण किया था उस तपस्वी कुमार ने महर्षि भृगु की सेवा में रहकर। महाआथर्वण का वह शिष्य स्वभाव से वीतराग, अत्यन्त तितिक्षु था। उसे गार्हस्थ्य के प्रति अपने चित्त में कोई आकर्षण प्रतीत नहीं हुआ। 'वत्स! तुम स्वयं देखकर निर्णय करो!' आज का युग नहीं था। शिष्य गुरुदेव के समीप गया और उसके कान में एक मन्त्र पढ दिया गया। वह अपने गुरुदेव के सम्प्रदाय मे दीक्षित हो गया। यह कौन सोचे कि उस जीव का भ
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8 ।।श्री हरिः।। 5 – जीवन का चौराहा 'आप कुछ व्यस्त दीखते हैं!' देवर्षि ने चित्रगुप्त की ओर देखा। 'भगवन!' आतुरतापूर्वक अपनी लेखनी एवं अनन्त कर्मपत्र एक ओर रखकर उठे वे जीवों के कर्मों का विवरण
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|| श्री हरि: || 9 - श्रद्धा की जय आज की बात नहीं है; किंतु है इसी युगकी क्या हो गया कि इस बात को कुछ शताब्दियाँ बीत गयी। कुलान्तक्षेत्र (कुलू प्रदेश) वही है, व्यास ओर पार्वती की कल-कल-निदनादिनी धाराएँ वही हैं और मणिकर्ण का अर्धनारीश्वर क्षेत्र तो कहीं आता-जाता नहीं है। कुलू के नरेश का शरीर युवावस्था में ही गलित कुष्ठ से विकृत हो गया था। पर्वतीय एवं दूरस्थ प्रदेशों के चिकित्सक व्याधि से पराजित होकर विफल-मनोरथ लौट चुके थे। क्वाथा-स्नान , चूर्ण-भस्म, रस-रसायन कुछ भी तो कर सका होता। नरेश न उच्छृं
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