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मुझे शिकायत है मेरी परछाई से..वो मेरी ठीक ठीक आकृति नहीं बनाती |कभी मेरे कद से छोटी तो कभी मेरे कद से बड़ी तो कभी मेरे दोनों पैरों के इर्द गिर्द एक गोल घेरा बना लिया करती है | मैं उससे छूपने को कभी पेड़ो की ओट में तो कभी दीवारों का सहारा लिया करता हूँ नज़र घुमा कर देखता हूँ तो मेरे सहारे को मुझ से जोड़ एक नई आकृति गढ़ रही होती है| मैं उससे भागता हूँ ,बेतहाशा ,उससे कोशों दूर निकल जाना चाहता हूँ पर हमेशा उसकी जिद्द मेरे पैरों में लिपटी हुई मिलती है| मैंने उससे कई बार कहा ठीक ठीक हिसाब क्यों नहीं लगा लेती ,तुम मुझे ठीक वैसा ही पेश क्यों नहीं करती जैसा मैं हूँ,उसने कुछ नहीं कहा, कभी नहीं कहा, चुप चाप मेरी आकृति बनाती रही| एक दिन मैं गुस्से से घर से नहीं निकला ,आज मैं खुश था कि उससे मुलाकात नहीं होगी तभी खिड़की से झांकती रौशनी का एक टुकड़ा मेरे से आ लगा ,पलट कर देखा तो परछाई दिवार पे एक आकृति लिए हुए,मैं उसके करीब जाने लगा और करीब ,जितना करीब गया वो मुझसे दूर होने लगे,मेरे अंदर एक अजीब सी टिस उठी उसके खो जाने की,मैं समझ नहीं रहा था जिससे इतने दिनों तक भागता रहा उसके खो जाने से मैं दुखी क्यों हूँ!!! मैं भावों का गुणा भाग नहीं करना चाहता था ,मुझे समझ आ गया कि उसका जिद्दीपन मुझे अच्छा लगने लगा है और उससे भागना खुद से भागना है,मैं फुट फुट कर रोने लगा एक बच्चे की तरह..मैं बिलकुल खाली हो जाना चाहता था उस रोज परछाई #RDV19
परछाई #RDV19
read moreDEVENDRA BHARADWAJ (DEV)
अजीब दास्तां है ये सपनों मैं भी आकृति दिखाई देती है अजीब सी दासताँ है ये मुझे जर्रे जर्रे में मेरी आकृति दिखाई देती है #अजीबसीदासताँहैये
DEVANSH RAJPOOT
पत्र तेरी वो बल खाती लिखावट और स्याही की महक हर शब्द पे तेरे हाथों का स्पर्श और इश्क़ की चहक आज फिर याद आयी मुझे उसकी जब मैं एक धूल खाती अलमारी में अपनी कुछ पुरानी किताबें ढूंढ रहा था | यूं फिर एक किताब दिखी मुझे जिसमे कुछ उभार सा था, जब मैंने खोली वो तो एक पन्ना रखा था उसमें जो कुछ मैला सा दिख रहा था पर महक अब भी बरकरार थी | वो पन्ना मुड़ा हुआ था और पीछे की तरफ एक दिल की आकृति बनी हुई थी, जिसे लोग इश्क़ का प्रतिक मानते है | उसमें गुलाबी रंग भरा हुआ था जो हमारे इश्क़ की तरह भद्दा पड़ गया था पर आकृति अभी भी पहले जैसे ही खूबसूरत थी | जब खोला मैंने उसे तो कुछ धूल सी जमी थी उसमें, जो मैंने एक फूंक मारकर तेरे मेरे ख्वाबों की तरह उड़ा दी | उसके कोने अब कुछ मुड़ से गए थे, मैंने खोला तो एक तरफ तेरा और एक तरफ मेरा नाम ऐसे लिखा हुआ था जैसे हमारे बीच दूरियां |स्याही थोड़ी फैल गयी थी पर लेखनी अभी भी पहले जितनी ही उम्दा थी, उसमें कुछ वादे भी थे जो शायद पुरे ना हो सके | हर बार की तरह तूने इस पत्र में भी मेरे नाम के अक्षरों में कुछ गलती की हुई थी पर इस बार वो स्याही के फैलनें से सही हो गयी थी | कुछ पहेलियाँ थी उसमें जिनमें मैं अभी भी उलझा हुआ था, जिन्हें सुलझाने की लिए मैं आज फिर उस गुलमोहर के पेड़ के निचे चला गया | जहा हम कभी मिला करते थे कुछ डालियाँ सुख गयी थी उसकी पर अहसास अब भी वही था मैंने यूं लोगो से नज़रे चुराकर, उस पत्र को पेड़ की जड़ में पत्तों से छिपाकर रख दिया जैसे कभी पहले रखा करते थे और तू पढ़ने आया करती थी | पर मुझे पता है तू अब पढ़ने नहीं आएगी ना - DEVANSH RAJPOOT #khubsuratalfaz #poetry #loveletter
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read moreParul Sharma
भीड़ भीड़ जब किसी विन्यास में व्यवस्थित हो जाती हैं तो एक श्रृंखला बन जाती है। श्रृंखला आकृति की श्रृंखला शब्दों की श्रृंखला रिश्तों की श्रृंखला आंदोलनों की जो दिशात्मक है, सृजनात्मक है। पर इसके लिए एकीकृत होना होगा किसी निमित्त के निबद्ध होना होगा इसका मतलब ये नहीं कि तुम परतंत्र हो गये या फिर भीड़ में खो गये। भीड़ में खो जाने से भयभीत न हो! क्यूँ कि रह किसी का अपना- अपना व्यक्तित्व है अस्तित्व है । इसलिए हरेक खुद में पृथक है और सशक्त है । तो भीड़ का हिस्सा बनो, खुद व्यवस्थित हो इसे व्यवस्थित करो। पारुल शर्मा #भीड़ जब किसी #विन्यास में व्यवस्थित हो जाती हैं तो एक #श्रृंखला बन जाती है। श्रृंखला #आकृति की श्रृंखला #शब्दों की श्रृंखला रिश्तों की श्रृंखला आंदोलनों की जो #दिशात्मक है, #सृजनात्मक है। पर इसके लिए #एकीकृत होना होगा
Anil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 11 ।।श्री हरिः।। 3 - दाता की जय हो! कुएँ पर रखा पत्थर पानी खींचने की रस्सी से बराबर रगड़ता रहता है और उस पर लकीरें पड़ जाती हैं; इसी प्रकार कोई एक ही शब्द बराबर रटा करे तो उसकी जीभ पर या मस्तिष्क पर कोई विशेष लकीर पड़ती है या नहीं, यह बताना तो शरीरशास्त्र के विद्वान का काम है। मैं तो इतना जानता हूँ कि जहाँ वह नित्य बैठा करता था, वहाँ का पत्थर कुछ चिकना हो गया है। श्रीबांकेबिहारीजी के मन्दिर के बाहर कोने वाली सँकरी सीढी के ऊपर वह बैठता था और एक ही रट थी उस
read moreAnil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8 ।।श्री हरिः।। 11 – पुनर्जन्म डा० ह्युम वॉन एरिच जीवाणु-वैज्ञानिक हैं मुख्य रूप से। वैसे आज विज्ञान की अनेक शाखाएँ परस्पर उलझ गयी हैं। रसायन-विज्ञान और परमाणु-विज्ञान के बिना आज जीवाणु-विज्ञान में प्रगति नहीं की जा सकती। स्वभावत: डा० एरिच ने इन विज्ञान की शाखाओं में भी अच्छा अध्ययन किया है। उनका प्रयोग चल रहा है और उन्हें लगता है कि मनुष्य में आनुवंशिकता अंकित करने वाली जो प्रकृति की लिपि है, उसमें परिवर्तन करने की कुंजी सैद्धान्तिक रूप में उनके हाथ आ गयी
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