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Kamlesh Kandpal
ढलते सूरज की रश्मियाँ पतझड़ से कुसुमित होते पेड़ नदी से उफ़नता जल प्रकृति कितने चित्र ऊकेर देती हैं कितने अर्थ इनसे बिखेर देती हैं ©Kamlesh Kandpal #prkriti
Kamlesh Kandpal
प्रकृति के हो जाओ अनुकूल फिर प्रकृति भी देगी उसके फूल छेड़छाड़ प्रकृति से नहीं उचित वरना हो जायेगी प्रकृति कुपित ©Kamlesh Kandpal #prkriti
Vikash Kamboj
अगर इन्सान का अस्तित्व इस पृथ्वी से मिट जाए, तो प्रकृति पत्थर की सडकों पर भी पनप जाएगी। ©Vikash Kamboj #prkriti
Kamlesh Kandpal
धानी चादर ओढ़ हुई धरा प्रफ्फुलित मानव अपने कृत्यों से करता उसे कुपित जोली, पीटर, रबीना, रहीम, सीता मोहन सब करते हैं धरा के संसाधनों का दोहन। रोको दोहन,कहीं ना टूटे धैर्य प्रकृति का बदलना होगा हमें रवैया विनाश प्रवृति का ©Kamlesh Kandpal #prkriti
Kamlesh Kandpal
जब जब बहती है मंद बसंत समीर वृक्ष लहराते है, बनती है गजब तस्वीर। ऐसा लगता है मानो कोई बजा रहा सितार ह्रदय तक पहुंच जाती है, जिसकी झंकार। वृक्षों पर बैठे पंछियो का तब करो अवलोकन बैठते है पँखों और पंजों का बनाकर संतुलन। गोया कर रहें हों कोई अदभुत नृत्य प्रकृति तू रचती बड़े विचित्र से कृत्य। हवा जब हो जाती प्रचण्ड कर देती सबकुछ खंड खंड। फिर गिरा अपने पत्ते, शाखाएं लगे वृक्ष धरा तक झुक जाये। ये घटनाएं सब है सत्य चिरंतन ताकि जग करे इसका मनन ©Kamlesh Kandpal #prkriti
Barkharani Vidhyrthi (Vaidehi)
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