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AnuWrites@बेबाकबातें

#PhisaltaSamay

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शीर्षक-- #रेत_की_नदी_हूं_मैं
रेत की नदी हूं मैं , बह नहीं सकी हूं मैं ,
अश्क मेरे खुश्क हैं , धूल बन चुकी हूं मैं ।

बस यूं ही अड़ी हूं मैं, एक जगह खड़ी हूं मैं ,
बादलों का शोर सुन , सहरा से जा मिली हूं मैं ।

फूल पर रूकी भी मैं  , बूंद से धुली हूं मैं ,
खुशबुओं से बनी नहीं , तृण से घुलीमिली हूं मैं ।

आस खो चुकी थी मैं , प्यास हो चुकी हूं मैं ,
पानियों का दंभ देख , खार हो चुकी हूं मैं ।

आग ढो चुकी हूं मैं , ख़ाक हो चुकी हूं मैं ,
ओस मुझको सेंकती,  रातभर जली हूं मैं ।

कह नहीं सकी हूं मैं  , सह बहुत चुकी हूं मैं ,
धूप मुझको नोंचती ,  रूप खो चुकी हूं मैं ।

निशाने पे रही हूं मैं ,  ठिकाने से लगी हूं मैं ,
दम अभी गया नहीं , बहाने कर रही हूं मैं ।

सुनार की गढ़ी थी मैं , लुहार बन चुकी हूं मैं ,
तीर तानते रहो ,  प्रहार बन चुकी हूं मैं ।

गुहार नहीं करूंगी मैं , दहाड़ बन चुकी हूं मैं ,
बात मुझमें दफ्न है , गुबार बन चुकी हूं मैं  ।

हवाओं की पली हूं मैं , इसलिए मनचली हूं मैं ,
आंधियां मुझे समझीं है , उड़ान बन चुकी हूं मैं ।

झुकी नहीं पड़ी हूं मैं, थकी नहीं रूकी हूं मैं 
एक दिन दिखलाऊंगी , किरकिरी नहीं हूं मैं ।

©AnuWrites@बेबाकबातें #PhisaltaSamay

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