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राजा पत्रकार
मजदूर की हत्या में आजीवन कारावास की सजा अंबेडकरनगर। मजदूरी करने निकले युवक की हत्या के मामले में दोष साबित होने पर जिला जज तृतीय नेहा आनंद ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। उस पर कुल 70 हजार रुपये का अर्थदंड भी लगाया गया। जज ने आदेश में कहा कि अर्थदंड अदा न करने पर एक माह के अतिरिक्त साधारण मामला 16 अक्तूबर 2009 को अहिरौली थाना क्षेत्र से जुड़ा है। दो दिन बाद 18 अक्तूबर को थाने में दर्ज कराए केस में वादी रामपाल ने बताया कि उसका भाई सतीराम (25) मजदूरी मांगने टकटकवा गांव निवासी रामबली के साथ नरसिंह भारी गांव निवासी मेट रामदीन के पास गया था। उसके बाद वह वापस नहीं लौटा। केस में कहा गया कि रामबली की पत्नी से नाजायज संबंध होने की आशंका पर ही सतीराम की रामबली ने हत्या कर दी। पुलिस ने मामले में केस दर्ज कर आरोपी को जेल भेज दिया था।इस बीच अब सत्र परीक्षण के लिए मामला आने पर अपर जनपद न्यायाधीश तृतीय नेहा आनंद ने आरोपी रामबली को घटना का दोषी करार दिया। हत्या करने के अपराध में जज ने अभियुक्त रामबली को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। उस पर 50 हजार रुपये का अर्थदंड भी लगाया। अपराध को छिपाने के लिए तीन वर्ष के कारावास की सजा सुनाते हुए बीस हजार रुपये का अर्थदंड लगाया। ©राजा पत्रकार #मजदूर की हत्या में #आजीवन #कारावास की सजा
जीtendra
मुकम्मल जिंदगी के अधूरे दस्तावेज आजीवन याद आते हैं... #मुकम्मल_ज़िंदगी #मुकम्मल #आजीवन #याद #दस्तावेज
#मुकम्मल_ज़िंदगी #मुकम्मल #आजीवन #याद #दस्तावेज
read moreजीtendra
अब तो केवल स्मृतियों में जीना चाहता हूं, आजीवन तड़प तड़प कर मैं रोना चाहता हूं... 😭 #स्मृतियों #आजीवन #तड़प
Lucky kunjwal ( Musafir)
कुछ मरहम तो कुछ जख्म उन्ही की देन है जनाब, बेखबर हम पत्थर को कोसते रहे।। #पत्थरदिल #आजीवन
रजनीश "स्वच्छंद"
जग निष्ठुर।। आजीवन मन मे व्यथा रही, औरों ख़ातिर ये कथा रही। ये कलम संगिनी बन उभरी, पीड़ा रो रो कर ये बता रही। कहां आरम्भ कहां अंत हो, दुविधा कोहरा बन छाई है। कौन वज़ीर और रानी कौन, पीड़ा मोहरा बन आयी है। छल प्रपंच के जाल में उलझा, मनुज स्वीकृति से आदी है। मैं मेरा का युद्ध चला बस, अवगुण विकृति ये व्याधी है। कोई उपचार नहीं वैद्य नहीं, कस्तूरी सी नाभी बसती है। कुछ मोह-जनित मुद्रा इसकी, कई खेल नई सी रचती है। भ्रमित मैं वन वन फिरता हूँ, ये पीड़ा कैसी जो सता रही। आजीवन मन मे व्यथा रही, औरों ख़ातिर ये कथा रही। मतला बहर काफ़िया रदीफ़, इनसे लेखन का श्रृंगार हुआ। पर-कटे परिंदों की गाथा हो, कब मन मे ऐसा विचार हुआ। ख़्याल की कश्ती बीच भँवर, बस डूबती और उबरती है। रक्त-वाहक धमनियों में भी, ज्वार नहीं क्यूँ उमड़ती है। चलो आज लड़ लें ख़ुद से, खत्म करें समर जो बाकी है। कुछ उनकी भी सुन पढ़ लें, जिनके लिए सहर ये झांकी है। उनको भी अधिकार मिले, जिनके बल पे ये सत्ता रही। आजीवन मन मे व्यथा रही, औरों ख़ातिर ये कथा रही। ©रजनीश "स्वछंद" जग निष्ठुर।। आजीवन मन मे व्यथा रही, औरों ख़ातिर ये कथा रही। ये कलम संगिनी बन उभरी, पीड़ा रो रो कर ये बता रही। कहां आरम्भ कहां अंत हो,
जग निष्ठुर।। आजीवन मन मे व्यथा रही, औरों ख़ातिर ये कथा रही। ये कलम संगिनी बन उभरी, पीड़ा रो रो कर ये बता रही। कहां आरम्भ कहां अंत हो,
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