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Maanvi innocent girl

Rohit Singh

धोखे धोखे से किसी का विश्वास पाया तो जा सकता हैं,
पर उस विश्वास को स्थाई तौर पर कायम रख पाना असम्भव होता हैं।।।। #धोखा #प्यार #प्रेम #स्थाई #असंभव
#nojotothoghout

B.L Parihar

#bachpan hmara

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*हम उस जमाने के बच्चे थे*

पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे... स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी, कक्षा के तनाव में भाटा पेन्सिल खाकर ही हमनें तनाव मिटाया था।

स्कूल में टाट-पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी साथ ले जाते थे।

कक्षा छः में पहली दफा हमने अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी।
स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था।
करसीव राइटिंग भी कॉलेज मे जाकर ही सीख पाए।

उस जमाने के हम बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी,
कपड़े के थेले में किताब और कापियां जमाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। 

तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई काॅपी-किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था।

सफेद शर्ट और खाकी पेंट में जब हम माध्यमिक कक्षा पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास तो हुआ लेकिन पेंट पहन कर हम शर्मा रहे थे, मन कर रहा था कि वापस निकर पहन लें। 

पांच छ: किलोमीटर दूर साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी।

हर तीसरे दिन पम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरते मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे।

स्कूल में पिटते, कान पकड़ कर मुर्गा बनते, मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता.. हम उस जमाने के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि *ईगो* होता क्या है?

क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता,और हम अपनी पूरी खिलदण्डता से हंसते पाए जाते।

रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता, मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते।

हम उस जमाने के बच्चे सपने देखने का सलीका नही सीख पाते, अपने माँ बाप को ये कभी नही बता पाते कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि "आई लव यू माॅम-डेडी" नहीं आता था. 

हम उस जमाने  से निकले बच्चे गिरते सम्भलते लड़ते-भिड़ते दुनिया का हिस्सा बने है। कुछ मंजिल पा गए हैं, कुछ यूं ही खो गए हैं। 

पढ़ाई, फिर नौकरी के सिलसिले में लाख शहर में रहे लेकिन जमीनी हकीकत जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करती रहती रही है।

अपने कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें आज भी नहीं आता है।

अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास।

कितने भी बड़े क्यूँ ना हो जायें हम आज भी दोहरा चरित्र नही जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे ही अन्दर से होते हैं।

*"हम थोड़े अलग नहीं, पूरे अलग होते हैं. "*
*कह नहीं सकते हम बुरे थे या अच्छे थे,*
    *"क्योंकि हम उस जमाने के बच्चे थे."* #Bachpan hmara

Apna Hisar Vicky Yar

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*!!हम उस जमाने के बच्चे थे!!*

पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे... 
स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी,
कक्षा के तनाव में भाटा पेन्सिल खाकर ही हमनें तनाव मिटाया था।

स्कूल में टाट-पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी साथ ले जातें थे।

कक्षा छः में पहली दफा हमनें अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी 
स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था।
करसीव राइटिंग भी कॉलेज मे जाकर ही सीख पाए।

उस जमाने के हम बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी,
कपड़े के थेले में किताब और कापियां जमाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। 

तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई काॅपी-किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था।

सफेद शर्ट और खाकी पेंट में जब हम माध्यमिक कक्षा पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास तो हुआ लेकिन पेंट पहन कर हम शर्मा रहे थे, मन कर रहा था कि वापस निकर पहन लें। 

पांच छ: किलोमीटर दूर साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी।

हर तीसरे दिन पम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरतें मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे।

स्कूल में पिटते, कान पकड़ कर मुर्गा बनतें मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता.. हम उस जमाने के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि *ईगो* होता क्या है।

क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता, और हम अपनी पूरी खिलदण्डता से हंसते पाए जाते।

रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता, मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते।

हम उस जमाने के बच्चें सपनें देखने का सलीका नही सीख पाते, अपनें माँ बाप को ये कभी नही बता पातें कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि "आई लव यू माॅम-डेडी" नहीं आता था. 

हम उस जमाने  से निकले बच्चें गिरतें सम्भलतें लड़ते भिड़ते दुनियां का हिस्सा बने हैं। कुछ मंजिल पा गए हैं, कुछ यूं ही खो गए हैं। 

पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में लाख शहर में रहें लेकिन जमीनी हकीकत जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करती रहती रही है. 

अपने कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नहीं आता है।

अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास।

कितने भी बड़े क्यूँ ना हो जायें हम आज भी दोहरा चरित्र नही जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे हीं अन्दर से होते हैं।

*"हम थोड़े अलग नहीं, पूरे अलग होते हैं. "*

*कह नहीं सकते हम बुरे थे या अच्छे थे,*
    *"क्योंकि हम उस जमाने के बच्चे थे."*

B.L Parihar

#Hum bache the

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*हम उस जमाने के बच्चे थे*

पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे... स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी, कक्षा के तनाव में भाटा पेन्सिल खाकर ही हमनें तनाव मिटाया था।

स्कूल में टाट-पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी साथ ले जाते थे।

कक्षा छः में पहली दफा हमने अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी।
स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था।
करसीव राइटिंग भी कॉलेज मे जाकर ही सीख पाए।

उस जमाने के हम बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी,
कपड़े के थेले में किताब और कापियां जमाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। 

तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई काॅपी-किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था।

सफेद शर्ट और खाकी पेंट में जब हम माध्यमिक कक्षा पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास तो हुआ लेकिन पेंट पहन कर हम शर्मा रहे थे, मन कर रहा था कि वापस निकर पहन लें। 

पांच छ: किलोमीटर दूर साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी।

हर तीसरे दिन पम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरते मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे।

स्कूल में पिटते, कान पकड़ कर मुर्गा बनते, मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता.. हम उस जमाने के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि *ईगो* होता क्या है?

क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता,और हम अपनी पूरी खिलदण्डता से हंसते पाए जाते।

रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता, मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते।

हम उस जमाने के बच्चे सपने देखने का सलीका नही सीख पाते, अपने माँ बाप को ये कभी नही बता पाते कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि "आई लव यू माॅम-डेडी" नहीं आता था. 

हम उस जमाने  से निकले बच्चे गिरते सम्भलते लड़ते-भिड़ते दुनिया का हिस्सा बने है। कुछ मंजिल पा गए हैं, कुछ यूं ही खो गए हैं। 

पढ़ाई, फिर नौकरी के सिलसिले में लाख शहर में रहे लेकिन जमीनी हकीकत जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करती रहती रही है।

अपने कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें आज भी नहीं आता है।

अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास।

कितने भी बड़े क्यूँ ना हो जायें हम आज भी दोहरा चरित्र नही जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे ही अन्दर से होते हैं।

*"हम थोड़े अलग नहीं, पूरे अलग होते हैं. "*
*कह नहीं सकते हम बुरे थे या अच्छे थे,*
    *"क्योंकि हम उस जमाने के बच्चे थे."*

आदर #Hum bache the

Abhijeet Dey

विवाह का आधार न लोभ ना ही  प्रेम होना चाहिए, क्यों कि दोनों ही अस्थायी भाव है। विवाह त्याग, आत्मदान और समर्पण का अनुष्ठान है।

आर्थिक लाभ और काया कल्प यदि चयन का आधार हो तो भी संबंध स्थाई रूप से अनुकूलित नही रह सकता।

केवल एक दूसरे के प्रति सम्मान और समर्पण का भाव स्थाई रिश्तो को जन्म देती है। और इसके साथ यदि विवाह प्रेम सूत्र से भी बंधा हो तो जीवन उत्सब बन जाता  है ।

~अभिजीत दे। #विवाह #Marriage

Panchdoot

कल से उपलब्ध होगा, आपकी अपनी मैगज़ीन का इस माह का यह अंक !! इस बार के अंक में 3 लेखक/ लेखिकाओं @deepajoshidhawan @rahulrahi_ और @akash_tiwari97 के आर्टिकल स्थाई कॉलम के तहत प्रकाशित हैं । इस श्रृंखला में @mushaaiir के साथ एक और साथी की रचना को स्थाई कॉलम के रूप में अगले अंक से प्रकाशित किया जाएगा । पञ्चदूत परिवार इन सभी कलमकारों को सलाम करता हैं । यह अंक कल से हमारी वेबसाइट से डाउनलोड कर सकते हैं । अगर इस की हार्ड कॉपी आप के नजदीकी मैगज़ीन स्टॉल पर उपलब्ध नहीं है तो उस मैगज़ीन स्टोर का पता ईमे

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 कल से उपलब्ध होगा, आपकी अपनी मैगज़ीन का इस माह का यह अंक !! इस बार के अंक में 3 लेखक/ लेखिकाओं @deepajoshidhawan @rahulrahi_ और @akash_tiwari97  के आर्टिकल स्थाई कॉलम के तहत प्रकाशित हैं । इस श्रृंखला में @mushaaiir के साथ एक और साथी की रचना को स्थाई कॉलम के रूप में अगले अंक से प्रकाशित किया जाएगा । पञ्चदूत परिवार इन सभी कलमकारों को सलाम करता हैं ।

यह अंक कल से हमारी वेबसाइट से डाउनलोड कर सकते हैं । अगर इस की हार्ड कॉपी आप के नजदीकी मैगज़ीन स्टॉल पर उपलब्ध नहीं है तो उस मैगज़ीन स्टोर का पता ईमे

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