मेरे दिन लूट लेती हैं मेरी ज़िम्मेदारियां..
जेबख़र्च के लिए रोज़ मैं रातें चुराता हूँ..
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सख्त़ धूप में जब मेरा सफ़र हो गया,
कच्ची मिट्टी सा था, मैं पत्थर हो गया !
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वो बेचता रहा हस्ती शोहरत के बाज़ार में
देख मेरे कलाम ख़ुद मेरा इश्तिहार हो गया
FIROZ KHAN ALFAAZ
जब भी लौटता हूँ घर मैं नमाज़ पढ़कर,
ख़ैर-ओ-बरकत भी साथ मेरे घर आती है !!
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ऐ यार, ज़रा अहिस्ता ले चल मेरी मय्यत,
मेरे क़ातिल की ग़म-गुसारी तो अभी बाक़ी है !
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देखना, अँधेरा भी थक कर सो ही जाएगा,
'अल्फ़ाज़' हर शाम की एक सहर आती है !
FIROZ KHAN ALFAAZ
जब दिल टूटेगा तो ख़ुद समझ जाओगे,
इश्क़ मिसरा है तो क़ाफ़िया क्या है !
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तेरा एहसास जैसे कोई नेकी का सिला,
तेरा दीदार जैसे असर हो मेरी दुआओं में !
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सिर्फ़ कमरे, आँगन, और दहलीज़ ही नहीं,
रिश्ते भी बंट जाते हैं घर के बंटवारे में !
FIROZ KHAN ALFAAZ
दवा देना है तो दे वरना ज़हर ही दे दे,
मरीज़-ए-इश्क़ को अब आराम तो आये !
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तेरे इश्क़ की हर शर्त है मंज़ूर हमको,
जिन्हें तोड़ने में भी मज़ा और निभाने में भी !
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जबीं रोज़ पूछती है ख़ुदा से सजदा करके !
मुकम्मल कब होगा मेरी दुआओं का सफ़र !
FIROZ KHAN ALFAAZ
किसीको मुफ़्त में आसरा भी नहीं देता,
कितना छोटा है मेरे दिल से ये शहर मेरा !
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तमाशा इश्क़ का हो तो सारी दुनिया देखे,
मेरी तसव्वुर-ए-ग़ज़ल सर-ए-आम तो आये !
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अब तलक तो यही सोच कर संभाल रखा है,
कि सूखा ही सही, मगर ये वही गुलाब तो है !
FIROZ KHAN ALFAAZ
जागे जो नींद से तो जाना की ख़्वाब था वो,
पहलू में हम तुझे न पा करके रो लिए !
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तपते सहरा में तेरा साथ है बाईस-ए-सुकूँ,
तू साथ है तो अमावास रात भी नूरानी है !
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तेरी हसरत तो करता हूँ, ज़िद नहीं करता,
कोई बुराई तो नहीं तुझे इस तरह चाहने में !
FIROZ KHAN ALFAAZ
अब तो रूठने में ही मज़ा आने लगा है,
वो मनाता है तो अब मनाने दीजिये !
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मुझको हिंदी में मज़हब तुम सिखलाओ,
मैं आलिम कहाँ अरबी ज़बां का हूँ !
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कुछ देना हो तो बे-ग़रज़ हो के देना,
शजर की तरह कोई ज़िम्मेदारी रखना !
FIROZ KHAN ALFAAZ
कहें तो कैसे कहें कि बात है दिल की,
जिसे कहने में भी मज़ा और छुपाने में भी !
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इन सबके भी दिल में तो आरज़ू-ए-यार है,
क्यूँ इश्क़ करने की यही लोग सज़ा देते हैं ,
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क्यूँ लग गई है मेरी ख़ुशियों को बद-नज़र,
हँसता तो हूँ पर अब दिल से हँसता मैं नहीं हूँ !
FIROZ KHAN ALFAAZ
सुना है की वहां रहमतें बरसती हैं,
जाने कब मैं मुस्तफ़ा के शहर जाऊँगा !
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जब रात अँधेरी घिरते ही मेरा साया खो जाता है !
तू चुपके से मन में आकर मेरे साया हो जाता है !
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जिस मलाल-ए-इश्क़ में सौदाई बने फिरते हैं,
वो इश्क़ का रुतबा है या इश्क़ की रुस्वाई है !
FIROZ KHAN ALFAAZ
हमने सोचा था, देखेंगे बस एक नज़र,
एक नज़र क्या मिली, सिलसिला हो गई !
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रुक-रुक के जाँ निकलती है ‘अल्फ़ाज़’ की जानाँ,
हंस हंस के यूँ ग़ैरों से तो बोला न कीजिये !
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उस याद के धुएँ में महकी वही हिना है,
मैं जिसकी हर ख़ुशी था, वो ख़ुश मेरे बिना है !