तपती सड़कें नन्हे पाँव, सूरज की तपिस, लौटते अधूरे सपनें, साथ ज़िंदगी के घाव। चलते चले चलते चले, मीलों के फ़ासले करने पूरे, आग उगलती रही धरती, टूट जाती जूती बार-बार। कभी पसीना आँखों में आँसू, जख्म हरे जज्बात न काबू। बड़ी विडंबना आन पड़ी, गुस्ताखी अब जान पड़ी। न पैरों पर चप्पल, न सिर पर छांव। नन्हे कदम बढ़ चले गाँव, लेके भूख प्यासे कुछ घाव। ✍️लिकेश ठाकुर तपती सड़कें नन्हे पाँव, सूरज की तपिस, लौटते अधूरे सपनें, साथ ज़िंदगी के घाव। चलते चले चलते चले, मीलों के फ़ासले करने पूरे, आग उगलती रही धरती, टूट जाती जूती बार-बार।