दीवारें उखड़ रहीं थीं, मलबा निकल रहा था, मेरे पूरे अस्तित्व का शायद पुनर्निमाण चल रहा था, पर ये ज़रूरी भी था, खुद की थी मैं खुद ही पतवार, था वो बेहद दर्द भरा, थी असहनीय पीड़ा अपार, किन्तु मेरे जीवन का कोई ग्रहण उतर रहा था, दीवारें उखड़ रहीं थीं, मलबा निकल रहा था, मेरे पूरे अस्तित्व का शायद पुनर्निमाण चल रहा था। रुक रुक के लहू के साथ, पस भी निकल रहा था, वो नासूर जिसने सोने ना दिया था कभी, वो उफ़न उफ़न कर मुझ पर वार कर रहा था, था वो दर्द भरा, थी असहनीय पीड़ा अपार, किन्तु मेरे जीवन का कोई ग्रहण उतर रहा था, दीवारें उखड़ रहीं थीं, मलबा निकल रहा था, मेरे पूरे अस्तित्व का शायद पुनर्निमाण चल रहा था।