आँखें मूंदूँ तो तेरा चेहरा याद आता है, ठोकर खाकर हमने,जैसे ही यंत्र को उठाया, मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई,कुछ घरघराया...झटके से गरदन घुमाई, पत्नी को देखा,अब यंत्र से,पत्नी की आवाज़ आई...मैं तो भर पाई...!सड़क पर चलने तक का,तरीक़ा नहीं आता,कोई भी मैनर,या सली़क़ा नहीं आता...बीवी साथ है,यह तक भूल जाते हैं...और भिखमंगे-नदीदों की तरह, चीज़ें उठाते हैं......इनसे,इनसे तो,वो पूना वाला,इंजीनियर ही ठीक था...जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता,इस तरह राह चलते, ठोकर तो न खाता...हमने सोचा,यंत्र ख़तरनाक है...!और यह भी इत्तफ़ाक़ है,कि हमको मिला है,और मिलते ही,पूना वाला गुल खिला है...और भी देखते हैं,क्या-क्या गुल खिलते हैं...?अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं...तो हमने एक दोस्त का,दरवाज़ा खटखटाया...द्वारखोला,निकला,मुस्कुराया... दिमाग़ में होने लगी आहट,कुछ शूं-शूं,कुछ घरघराहट...यंत्र से आवाज़ आई,अकेला ही आया है,अपनी छप्पनछुरी,गुलबदन को,नहीं लाया है...प्रकट में बोला,ओहो...!कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है...!और सब ठीक है...मतलब, भाभीजी कैसी हैं...?हमने कहा,भा... भी... जी...या छप्पनछुरी गुलबदन...?वो बोला, होश की दवा करो श्रीमन्,क्या अण्ट-शण्ट बकते हो...भाभीजी के लिए,कैसे-कैसे शब्दों का,प्रयोग करते हो...?हमने सोचा,कैसा नट रहा है,अपनी सोची हुई बातों से ही,हट रहा है...सो, फ़ैसला किया,अब से बस सुन लिया करेंगे,कोई भी अच्छी या बुरी,प्रतिक्रिया नहीं करेंगे...लेकिन अनुभवहुएनए-नए,एकआदर्शवादी दोस्त के घर गए...स्वयं नहीं निकले...वे आईं,हाथ जोड़कर मुस्कुराईं,मस्तक में भयंकर पीड़ा थी,अभी-अभी सोए हैं...यंत्र नेबताया,बिल्कुल नहीं सोए हैं,न कहीं पीड़ा हो रही है,कुछ अनन्य मित्रों के साथ,द्यूत-क्रीड़ा हो रही है... अगले दिन कॉलिज में,बीए फ़ाइनल की क्लास में,एक लड़की बैठी थी,खिड़की के पास में...लग रहा था,हमारा लेक्चर नहीं सुन रही है,अपने मन में,कुछ और-ही-और, गुन रही �