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फिर एक बार बाहों के झूलों का मिट्टी रबड़ के उन फल

फिर एक बार बाहों के झूलों का 
मिट्टी रबड़ के उन फल फूलों का 
आधी साफ आधी कच्ची बोलियों का 
दो पैसों की खट्टी मीठी गोलियों का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

तब न कोई अगर मगर था
चुन्नी से बनाया हुआ घर था 
चुनरी से मां की अब घर बनाने का 
और उस ही में फिर लुक जाने का
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

कभी मेला कभी बाजार था 
हिस्से में जो पहले इतवार था 
बाप की गोद में चढ़कर मचलने का 
तंग गलियों में गिरकर संभलने का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

निकलते हुए बस्ता थमा देने का 
और हाथ में रोटी पकड़ा देने का 
माँ के बटुए से निकली उस अठन्नी का 
सौ कॉपी पे चढ़ाई गई एक ही पन्नी का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

बीते स्कूल में वो भी ज़माने थे 
के होते जुबां पे सौ सौ बहाने थे 
सुबह सुबह रोज़ बीमार हो जाने का 
या अब कॉपी घर पर छोड़ आने का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

बाहर घर के आया करते थे 
यार वहीं से बुलाया करते थे 
फिर से उनको आवाज़ लगाने का 
हां इस तरह से उनसे मिल पाने का
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं 

खुशी लेकर हंसी बांटते थे 
ज़िंदगी में ज़िंदगी काटते थे 
उस नूर में फिर से झिलमिलाने का 
बेवजह भी हंसने और मुस्कुराने का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

©Vishal Sharma #वक़्त_आता_क्यों_नहीं
फिर एक बार बाहों के झूलों का 
मिट्टी रबड़ के उन फल फूलों का 
आधी साफ आधी कच्ची बोलियों का 
दो पैसों की खट्टी मीठी गोलियों का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

तब न कोई अगर मगर था
चुन्नी से बनाया हुआ घर था 
चुनरी से मां की अब घर बनाने का 
और उस ही में फिर लुक जाने का
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

कभी मेला कभी बाजार था 
हिस्से में जो पहले इतवार था 
बाप की गोद में चढ़कर मचलने का 
तंग गलियों में गिरकर संभलने का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

निकलते हुए बस्ता थमा देने का 
और हाथ में रोटी पकड़ा देने का 
माँ के बटुए से निकली उस अठन्नी का 
सौ कॉपी पे चढ़ाई गई एक ही पन्नी का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

बीते स्कूल में वो भी ज़माने थे 
के होते जुबां पे सौ सौ बहाने थे 
सुबह सुबह रोज़ बीमार हो जाने का 
या अब कॉपी घर पर छोड़ आने का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

बाहर घर के आया करते थे 
यार वहीं से बुलाया करते थे 
फिर से उनको आवाज़ लगाने का 
हां इस तरह से उनसे मिल पाने का
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं 

खुशी लेकर हंसी बांटते थे 
ज़िंदगी में ज़िंदगी काटते थे 
उस नूर में फिर से झिलमिलाने का 
बेवजह भी हंसने और मुस्कुराने का 
वक़्त आता क्यों नहीं
वक़्त आता क्यों नहीं

©Vishal Sharma #वक़्त_आता_क्यों_नहीं
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Vishal Sharma

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