उम्र के तजुर्बे से, खयालात बदलते रहे मैं नहीं बदला था बस, हालात बदलते रहे तवाही के मंज़र ने, शहर वीरान कर डाले ख्वाहिशों ने राख से, घर मकान भर डाले हर दफा सुनवाई पे, हम बात बदलते रहे मैं नहीं बदला था, बस हालात बदलते रहे चैन की रोटी कमाना, सबकी चाहत है इक-दूसरे के काम आना, भी इबादत है दुआएं देने बाले, कुछ हाथ बदलते रहे मैं नहीं बदला था, बस हालात बदलते रहे मौलिक रचना ✍कुमार अनुज सोलंकी #उम्रकातजुर्बा #उम्र #तजुर्बा #हालात