ऊंचे पर्वतों की चोटी से लेकर गहरे सागर की तलहटी तक पचपन ,साठ की गर्मी में जलकर माइनस में जो हांड कंप-कपवाते है, अदम्य साहस,शौर्य से हर अपने जो हर रोज अध्याय नया लिख जाते है भारती माता के वीर सपूत वो जो सरहद को अपने लहु से नहलाते है कम ना भारती माँ की मुस्कान कभी धूमिल ना हो चमकते तिरंगे की शान कभी रक्षा ,सुरक्षा और भारत स्वाभिमान खातिर जो अपनी आंखो की नींद बेच जाते बंदन करता है आज "स्वीकार" उनका प्रातः महादेव से पहले समक्ष शीश उनके झुकाता है..! -kv स्वीकार✍️ झुक जाते समक्ष जिसके आकाश सदैव पर्वत भी राह स्वयं उनके लिए बनाते है, नित कल -कल कर नदियां हिमालय की जिसके गुणगान सदैव गाते है क्या सियाचिन की वह बर्फ़ की चादरे क्या बाड़मेर ,जैसलमेर की वो भीषण तपन