प्रकृति की गोद में प्रकृति की गोद मे, कभी रहते थे सुकून से, जब टूट जाते थकन से, वो हरी घास प्यार से बुला कर, थपकी दे सुलाया करती थी। कई बार दादी की नर्म गोद सा, एहसास दिलाया करती थी। पंखा झलते थे वृक्ष पितामह जैसे, कुहुकिनियाँ(कोयलें) गीत सुना, माँ की लोरी सी सहलाया करती थीं। पापा की मजबूत बाहों ने धरा होता अम्बिया के वृक्ष का हाथ, उस हिंडोले पर झूल मैं खूब इतराया करती थी। उड़ती धूल जब आंखों में आती, भाई बहनों की मीठी नोक-झोंक सी सताया करती थी। आंखें मीठी नींद खुद में भरकर, फिर सपनों की नगरी ले जाया करती थीं। अब तो सूखे तृण हैं नरम घास की जगह वृक्ष हमने छोड़े नही, कुहूकिनी रूठ कर जाने किस देस में डेरा डाल बैठी हैं। धूल और तिनके नोक झोंक के लिए रस्ता ताकते है और हम मजबूरन बस खिड़कियों से बाहर झांकते है। 22मई2021 ©Divya Joshi प्रकृति की गोद मे, कभी रहते थे सुकून से, जब टूट जाते थकन से, वो हरी घास प्यार से बुला कर, थपकी दे सुलाया करती थी। कई बार दादी की नर्म गोद सा, एहसास दिलाया करती थी।