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कहानी मैं वैलेन्टाइन नहीं मनाती भाग १ कहानी- मैं व

कहानी
मैं वैलेन्टाइन नहीं मनाती
भाग १ कहानी- मैं वैलेंटाइन नहीं मनाती।

एक गहरे सन्नाटे में खोयी हुई, वो अतीत की यादें उसे खींचे ले रही थी।
अतीत कहने को तो अतीत होता है पर एक अजीब सा सच, वो भूत होकर भी निरंतर भविष्य की राह पर होता है,
हुह् बङा जिद्दी होता है अतीत।
गहरे लाल रंग की साङी पतली कमर से होती हुई यूं उसने संभाल कर पहनी थी मानो खुद लताओं ने वृक्षों का श्रृंगार किया हो, सुरमई आंखों में सुरमे की पतली सी धार, बङी बङी पलकों ने आंखों को एक नयी प्रतिभा दे रखी थी कितनी भी कहानियां छुपा सकती थी उसकी ये आँखें..हाथों में पेन पकङे अपने बेड की दायीं तरफ रखी टेबल पर डायरी में कुछ लिखने बैठी थी , किंतु वो दिवास्वप्न से दृश्य खींचे ले रहे थे उसे, इस दुनिया की तो उसे कोई खबर ही नहीं थी। पेन हाथ में यूँ का यूँही रह गया..भृकुटियां तनी हुई आंखों के डोरे लालिमायुक्त और ललाट खिंचा हुआ, क्या करती बेचारी, अरे नहीं बेचारी; बेचारी शब्द से तो नफरत थी उसे, वो बेचारी नहीं है आहत है, अपनों के ही वार से, कोई गैर होता तो शायद; शायद क्या अरे निश्चित ही, वो अपनी गरिमा को ठेस पहुंचाने वाले के हलक से प्राण खींच लेती, पर जिनकी सोच में यह बैठी है वो गैर कहाँ थे! बहुत कठोर बना दिया था हालात ने उसे, अक्सर उसकी खामोशी बातें बहुत करती थी मगर उसकी तिलस्मी आँखें और होठों के नीचे का तिल हमेशा कामयाब होते थे उन्हें छुपाने में...
बङी बोझिल हो जाती है एक-एक सांस, जब अंदर संताप से आत्मा व्याकुल हो मगर होंठों को मुस्कुराते रहना हो | कैसे न मुस्कुराती एक ही तो वादा किया था उसने मुस्कुराते रहने का।
यूं विचारमग्न बैठी ही थी आरवी, कि फोन की घंटी ने उसकी तंद्रा तोङ दी।
कहानी
मैं वैलेन्टाइन नहीं मनाती
भाग १ कहानी- मैं वैलेंटाइन नहीं मनाती।

एक गहरे सन्नाटे में खोयी हुई, वो अतीत की यादें उसे खींचे ले रही थी।
अतीत कहने को तो अतीत होता है पर एक अजीब सा सच, वो भूत होकर भी निरंतर भविष्य की राह पर होता है,
हुह् बङा जिद्दी होता है अतीत।
गहरे लाल रंग की साङी पतली कमर से होती हुई यूं उसने संभाल कर पहनी थी मानो खुद लताओं ने वृक्षों का श्रृंगार किया हो, सुरमई आंखों में सुरमे की पतली सी धार, बङी बङी पलकों ने आंखों को एक नयी प्रतिभा दे रखी थी कितनी भी कहानियां छुपा सकती थी उसकी ये आँखें..हाथों में पेन पकङे अपने बेड की दायीं तरफ रखी टेबल पर डायरी में कुछ लिखने बैठी थी , किंतु वो दिवास्वप्न से दृश्य खींचे ले रहे थे उसे, इस दुनिया की तो उसे कोई खबर ही नहीं थी। पेन हाथ में यूँ का यूँही रह गया..भृकुटियां तनी हुई आंखों के डोरे लालिमायुक्त और ललाट खिंचा हुआ, क्या करती बेचारी, अरे नहीं बेचारी; बेचारी शब्द से तो नफरत थी उसे, वो बेचारी नहीं है आहत है, अपनों के ही वार से, कोई गैर होता तो शायद; शायद क्या अरे निश्चित ही, वो अपनी गरिमा को ठेस पहुंचाने वाले के हलक से प्राण खींच लेती, पर जिनकी सोच में यह बैठी है वो गैर कहाँ थे! बहुत कठोर बना दिया था हालात ने उसे, अक्सर उसकी खामोशी बातें बहुत करती थी मगर उसकी तिलस्मी आँखें और होठों के नीचे का तिल हमेशा कामयाब होते थे उन्हें छुपाने में...
बङी बोझिल हो जाती है एक-एक सांस, जब अंदर संताप से आत्मा व्याकुल हो मगर होंठों को मुस्कुराते रहना हो | कैसे न मुस्कुराती एक ही तो वादा किया था उसने मुस्कुराते रहने का।
यूं विचारमग्न बैठी ही थी आरवी, कि फोन की घंटी ने उसकी तंद्रा तोङ दी।