लो एक सफ़र फ़िर शुरू हो गया... हर सफ़र में डटकर चलता तो हूँ मैं, मंज़िल का मिलना तुझ पर छोड़ रहा हूँ कान्हा... डरा हूँ, गिरा हूँ, लड़ा हूँ, झुका हूँ, टूटा हूँ, बिखरा हूँ, रोया हूँ, चीखा हूँ... ना मेरा डर दिखा किसीको, ना ही आँसू, ना मेरी चोट दिखी किसीको, ना ही दर्द... अंधियारी घनी काली रातों में चला हूँ मैं, सुनसान सड़कों पर डर से लड़ा हूँ में... खरोंचें तो भर गई मगर घाव दिल में हरा है, मेरे अकेलेपन को मेरी ख़ामोशी ने भरा है... इन सभी सफ़र ने मुझे बदल दिया है, चुप रहता हूँ पहले से बोलना कम किया है... ना खुल कर हँसता हूँ, ना खुल कर रोता हूँ, मेरे ज़ख़्मों पे डाल के पर्दा फ़िर सोता हूँ... मेरे बदलते रंग देखे, उनमें छुपा दर्द नहीं, मेरी सोच बदली दिखी, उसमें गुम हँसी नहीं... सफ़र से डरता नहीं, इस दर्द से थक गया हूँ, थोड़ा उत्साह ही है अब... कहीं मंज़िल से पहले खत्म ही ना हो जाए... कहीं ये 'कुश' ज़ार-ज़ार ही ना हो जाए... - कुशाग्र जोशी #kanha #allah #manzil #Mayassar #Love