"डोसे वाले अंकल" /अनुशीर्षक/ हां, आज पता नही क्यों आज याद आ गए!! मुंबई जैसे महानगर की पूरे दिन की सोमवार वाली भागम-भाग के बाद अचानक उनके डोसे की महक, सांभर की खटास और रविवार की शांत दोपहर में तवे की टन-टन याद आ गई। :) बचपन की कोई सांझ याद आ गई, सच में भूले नहीं बिसरी है। मेरे पापा खाने के शौकीन हैं। और जब बात साउथ इंडियन खाने की आए तो उन्हें डोसा बहुत पसंद है। पूरे मोहल्ले में कोई खाए ना खाए हमारे घर के पास उनकी गाड़ी जरूर रुकती थी। हां, चार पहिए वाली, जिसमें एक छोटा सा चूल्हा साइड में लगा होता था और एक ऊंचे से बर्तन में डोसे का बैटर, एक स्टील के बर्तन में उबाले हुए आलू और दूसरे छोटे पतीले में चटनी। मसाले वाला डब्बा हल्दी के रंग में रंगा हुआ। एक इमरजैंसी स्टोभ भी थी उनके पास, जो बगल में लटकते रहती थी। 3*5 फीट की साफ-सुथरी गाड़ी पर उनका पूरा बिजनेस सेट हुआ करता था।