#भाषा के दुःख..... ऐसा नहीं था कि हम एक-दूसरे के दुःख समझ पाने में अक्षम थे पर संवादहीनता के चलते समझ की भाँति ही हमारी भाषा भी कम पड़ गई। अभिव्यक्ति में विफलता ही शायद भाषा का असाध्य दुःख रहा जिसे समझ पाना चित्र से बाहर बह आए रंगों को पुनः उसकी परिरेखाओं में समेटने जितना असंभव है। क्या भाषा के रहते भाषाविहीन हो जाना किसी त्रासदी से कम है! त्रासदियाँ केवल घटनाओं के घटने से ही नहीं बल्कि अपेक्षित के अघटित होने से भी हुईं। तुम्हारे स्पर्श भी किसी अघटित घटना की भाँति देह से अधिक मेरी भाषा में घुले हैं मैं स्वयं को भाषा से पूर्व की कोई कविता पाती हूँ जिसका सबसे बड़ा दुःख भाषा के अभाव में अव्यक्त रह जाना है।। --सुनीता डी प्रसाद💐💐 #भाषा के दुःख..... ऐसा नहीं था कि हम एक-दूसरे के दुःख समझ पाने में अक्षम थे पर संवादहीनता के चलते समझ की भाँति ही