प्रेम को कहा परिभाषित किया जा सकता है प्रिए... मन की स्वीकृति ही तो प्रेम है... यदि किसी को स्वयं के स्वार्थ के लिए बदलकर यह दर्शाया जाय कि प्रेम है,तो वो असम्भव है .. क्योंकि यदि प्रेम ना होता तो शिशु मां के आँचल मे नही छुपता,पिता से भावुक नही होता... प्राणी का ईश्वर मे प्रेम है तो सबकुछ कह सकता है... वो अपने अनुसार मा बाप को बदलने नही जाता.. भक्त अपने अनुसार ईश्वर को नही बदलता क्योंकि वहा प्रेम प्रकाशित रहता है वर्ना जिसका स्वार्थ होता है किसी से उसे तो अपने अनुसार बदलेंगे ही ,वो अपने अनुसार भगवान को भी बदल लेते है... जगत मे ऐसा नही होता कभी जो मिले और कुछ दे उसके पिछे उसका स्वार्थ छिपा हो... साधु (जिसने मन को जीता हो) द्वारा दिया गया आशिर्वाद निस्वार्थ होता है.. स्वयं मे स्वयं को ढूंढो प्रिए ,स्वयं से वार्तालाप करो ..चंचल मन को स्थिर करो , किसी को समझने से पहले उसके होने और न होने पर विचार करो ... तो प्रेम समझ आ जाएगा.... ©jagat Raghuvanshi #kavi #kavya #akanksha #sumanpoetry #sumankaviyatri Abhishek Kumar Pandey Chandni Khatoon RJ_Keshvi shayari and kavita By Rajesh Rj Anshuman tripathi