गांव और शहर जैसे देखती हूँ वैसा नहीं दिखता मेरा गांव अब गांव नहीं दिखता तरक्की के नाम पर बस रहे हैं जंगल कंक्रीट के वो हरा भरा खेत खलियान अब मुझे क्यों नहीं दिखता जहां होती थी भरमार गायों और बैलों की अब उस गांव में मुझे शुद्ध दही घी और छास क्यों नहीं दिखता कभी होती थी जिसकी पहचान उन मेले मेलों से वो मेल मिलाप अब क्यों नही दिखता ©Seema Mahapatra #गांव_और_शहर_भाग_1 #स्वरचित_हिन्दी_पंक्तियाँ