शृंगार (पूरी रचना अनुशीर्षक में पढ़ें) वो अकेला कमरे में खड़ा हो कर आईने में खुद को निहार रहा था। खुश था वो बहुत और आँखों से शायद इसीलिये दो बूँद आँसू भी टपक पड़े। बहुत दिनों बाद शायद उसकी उदासी में कमी आई थी। अचानक पीछे से उसकी पीठ पर एक जोरदार हाथ पड़ा और जैसे ही वह घूमा, एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद दिया गया उस दस साल के मासूम से बच्चे पर। वो समझ ही ना पाया कि आखिर उसे थप्पड़ पड़ा क्यूँ? ऐसा क्या गुनाह कर दिया था उस मासूम से बच्चे ने। इतने में उसके पिता ने रौबदार आवाज में उसे फिर से थप्पड़ मारा और कहा, "बड़ा शौक़ चढ़ रहा है तुझे लड़की बनने का, लड़कियों की तरह सजने-संवरने का। खानदान का नाम मिट्टी में मिलायेगा क्या?" वो बेचारा कुछ समझ पाता या समझा पाता, उससे पहले ही उसके पिता जी ने उसे मारा फिर और कमरे में बंद कर दिया इस हिदायत के साथ कि अगर दुबारा उसने ऐसा कुछ किया तो उसकी चमड़ी उधेड़ दी जायेगी। वो बेचारा पता नहीं कितनी देर रोया होगा। अपनी माँ को आज बहुत मिस कर रहा था वो जो उसे उसके बाल्यकाल में ही छोड़ कर चली गई थी। एक जानलेवा बिमारी ने उनकी जान ले ली थी। वो उन्हे याद तो बहुत करता था मगर कुछ कर नहीं सकता था। आखिर चले जाने वाले लौट कर आखिर आते ही कहाँ है वापिस। उसने तो वही किया जो उसने टीवी पर देखा था किसी लड़की को। मगर उसे ये समझ नहीं आया कि उस सिरियल में तो उस लड़की का पिता उसे गले लगा लेता है और यहाँ उसके पिता ने उसे मारा और दुत्कार दिया। अब उस बेचारे को क्या पता था कि वो एक लड़का है, और अगर एक लड़का अपनी माँ की साड़ी अपने बदन से लपेट ले, फिर भले ही वो माँ की आखिरी निशानी ही क्यूँ ना हो, उनकी यादों को सहेजने के लिये या अपनी माँ की छुअन को महसूस करने के लिये, तो वो गुनाह ही है इस पुरुष-प्रधान समाज में जहाँ एक लड़के की भावनाओं की कोई कद्र नहीं है और उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाता है ऐसी बातों पर।