विरह ****** क्यों आये तुम बैरी सावन सूना हो गया मेरा घर आँगन दिल में दबी सिसकी होठों पर आ गये जानेवाले लौटते नहीं सावन बरस कर कहे। झूले मेंहदी सूनी कलाई सब सच सच कहे। पी कहाँ पी कहाँ पपीहे की पूकार सुन विरहन की अँखियाँ बहे। क्यों भर आती अँखियां मेरी यह दर्द सृष्टि में अक्सर सब सहे। क्यों तुम बैरी सावन आये सूखे घाव में टीस उभर आये। दर्द मत कर आँख मिचौली बन जा अब तु मेरी सहेली