तुम हो ममता का सगुण रूप और, भाव भूमि की हलधर हो। करती हो तुम सृजन खुशी का- तुम करुणा रूप महिश्वर हो। तुम जीवन भर की दौड़ धूप में, मन्द-मन्द मुस्काती हो। घर आँगन की तुलसी बनकर, तुम मेहंदी सी खिल जाती हो। छोटी हो कर भी फ़िक्र बड़ों की, कैसे तुम कर लेती हो! अगर बड़ी हो तो फिर झट से, तुम माँ स्वरूप रख लेती हो। सुनो! बहन छोटी हो या बड़ी उसकी उपमा में किसे दूँ। वह तो 'उप-मा' ही होगी जबकि बहन तो साक्षात "माँ" होती है। : सारे रंज हो ग़म से दूर कर जाती हो। पत्थर की मूरत में रंग भर जाती हो। जब पूछती हो भैया तुम कैसे हो? मन -आँगन में बसन्त कर जाती हो। 😊💐😊