जलालुद्दीन रूमी ने एक तरकीब खोजी कि शरीर को चाक की तरह घुमाओ। उसको इतना घुमाओ, इतना घुमाओ कि जो भी शरीर का है, वह सब घूमने लगे। तब अचानक तुम्हें भीतर पता चलेगा कि कील की तरह जो ठहरा हुआ है, वह तुम्हारी आत्मा है, वह कभी नहीं घूमती, उसकी कोई गति नहीं है। वह सदा स्थिर है, वह कूटस्थ है। लेकिन शरीर जब घूमेगा तभी पता चलेगा कि कौन तुम्हारे भीतर है, जो सदा ठहरा हुआ है। तो सूफी दरवेश रात-रात भर घूमते रहते हैं--छः-छः घंटे। पूरी रात घूमने में बिता देते हैं,इस घूमते ही घूमते...घूमते ही घूमते...अचानक बोध होता है उसका, जो नहीं घूमनेवाला है। और इस बोध के लिए विपरीत को जानना जरूरी है। जैसे हम सफेद रेखा खींचते हैं काले तख्ते पर, उभर कर दिखाई पड़ती है; सफेद दीवार पर खींचो, दिखाई नहीं पड़ती। तुम्हारी आत्मा तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रही है, क्योंकि शरीर भी थिर मालूम पड़ता है और आत्मा भी थिर है; दोनों घोलमेल हो गये हैं। दोनों को अलग करने की जलालुद्दीन रूमी ने बड़ी कीमिया खोजी है कि शरीर को इतना घुमाओ, शरीर को इतनी गति दो कि वह चाक हो जाये। उस चाक की स्थिति में, विपरीत की मौजूदगी में, तुम्हारे भीतर ठहरे हुए का अनुभव होगा; कंट्रास्ट, विपरीत, तत्क्षण दिखाई पड़ जायेगा। वही तुम हो, जो कभी नहीं घूमता।---दिया तले अंधेरा 🌺🌹❤OG❤️🌹🌺— % & #gratitudejournal