*ओ उपवन के माली...* जिस पौधे को स्नेह करों से...रोपा तूने अपने आँगन... मधुर भावों की तूने उसको जाने कितनी खाद खिलाई.. अभी खिले ही थे प्रसून कुछ..शाखें थोड़ी सी लहराई.. तरु वो काटा अपने हाथों..माली ज़रा सी दया न आई... तेरे उपवन का ये पौधा...घनी छाँव का आलय बनता.. नन्हें नन्हें दो फूलों का...शाखाओं पर बचपन पलता... जाने क्यों तेरी नज़रों को...ना भायी इसकी तरुणाई... तरु वो काटा अपने हाथों..माली ज़रा सी दया न आई... कोमल मन का ये कोटर..अब सूनेपन में मुरझा जाएगा... कैसे अब उम्मीद का पँछी साँझ को लौट के घर आएगा.. जिसके शिखर पर रोज निशा..आकर लेती थी अंगड़ाई.. तरु वो काटा अपने हाथों..माली ज़रा सी दया न आई... कब माँगा था इसने तुझसे..हर पल मुझे बहार ही देना... कभी गमों की झुलस ना देना..बरखा की बौछार ही देना.. पतझड़ भी सह लेता हँसकर..तूँ ना देता चाहे पुरवाई... तरु वो काटा अपने हाथों..माली ज़रा सी दया न आई... जग-उपवन के माली सुनले..अब कोई तूफ़ान न देना... ना पूरा करना हो जिसको..फिर कोई अरमान न देना... करुणानिधि उपमा है तेरी..करुणा तूने खूब दिखाई... तरु वो काटा अपने हाथों..माली ज़रा सी दया न आई... "ओ उपवन के माली"