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निस्वार्थ बाँटती है क़ुदरत ,अपना अनमोल खज़ाना, न

 निस्वार्थ  बाँटती   है क़ुदरत ,अपना अनमोल खज़ाना,
निज स्वार्थ में अंधे हो हमने,इसका मोल नही पहचाना,

काटते रहे इसके अलंकार ,जो तन पर इसके सजते थे,
वो पीपल ,बरगद ,अमलतास,वो हिय में इसके बसते थे,

रखकर   धैर्य    सहती    रही , इंसानो  के अत्याचारों को,
वो  नम आँखों से   रही   झेलती ,सीने पर होते वारों को,

वो  धीर   रही  ,गंभीर   रही , बस देख समय के धारो को,
हम   बच्चे होकर    भूल गए ,माँ  प्रकृति के उपकारों को।।

-पूनम आत्रेय

©poonam atrey
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