कविता- चलते रहो, चलते रहो.. चलते रहो। हमारे वेदों का मूल सन्देश इन दो शब्दों में समाहित है....ऐसा मुझे लगता है। ये दो शब्द है चरैवेति चरैवेति। अर्थात चलते रहो चलते रहो। यह जो कविता मैंने लिखी है, मेरी पहली कविता है। वर्ष 2013 में गहन निराशा के क्षणों में पहुंचने के बाद जब मैंने परिस्थितियों से हार मान ली थी तब किताबें पढ़ना और लिखना मेरे लिए उम्मीद की किरण बनकर आया। तो यह कविता जिसका शीर्षक है "चलते रहो चलते रहो" एक प्रेणादायक कविता है जबकि इसकी रचना निराशाजनक परिस्थितियों में हुई है। हरिवंश राय बच्चन जी की कविता "अग्निपथ,अग्निपथ, अग्निपथ" की शैली से यह प्रभावित है और साथ ही इसमें रबिन्द्रनाथ टैगोर जी के गीत एकला चलो रे की प्रतिध्वनि इसमें सुनाई देती है। पढिये। तूफानों में तुम पलते रहो, मुश्किलों में आगे बढ़ते रहो,