वादे से मुझे अपने इन्कार नही है, बिकने को मैं राज़ी हूं ख़रीदार नही है। कैसे ये कहूं उस से मुझे प्यार नही है, हां लब पे मगर जुर्रते इज़हार नही है। रहता हूं मैं ग़ैरों की तरह भाइयों के बीच, आंगन में मगर देख लो दीवार नही है। ये हुजर-ऐ-दरवेश है जो चाहो मांग लो, ये बादशाहे वक़्त का दरबार नही है। ले जाओ कही और तुम अपने तबीब को, बस्ती में हमारे कोइ बीमार नही है। उस पार कोइ जाये,भला जाये तो कैसे, दरिया तो है,कश्ती भी है,पतवार नही है। दुश्मन हैं,कि बुनते हैं हर इक रोज़ नइ जाल, लेकिन 'आदर्श' उन से खबरदार नही है... ©Adarshpatel #बिकने हो हूँ राजी कोई खरीदार नहीं है।