निरंतर जीवन जगत में जीवन बहता जा रहा बन नदी । बिना कोई उद्गम, बिन पड़ाव कहाँ से उद्गम, कहाँ निर्गम ? निक्षेप ही निक्षेप, दुर्गम ही दुर्गम अंतहीन सिलसिला । बिना कोई बांध,बिना समाधान ना धार, ना आधार कहाँ जुड़े, कहाँ बिछुड़ें ? निरख परख क्या, क्यों, कब तक है कल्पना शब्दों की तो क्यों नहीं बनती हकीकत ? अनंत से बहती आ रही थकी जीवन नदी की व्यथा का महाकाल है कहाँ ? सागर में या मरुस्थलों में सिमटेगा जहां ।