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निरंतर जीवन जगत में जीवन बहता जा रहा बन नदी ।

निरंतर जीवन जगत में
जीवन बहता जा रहा 
बन नदी  । 

बिना कोई उद्गम, 
बिन पड़ाव
कहाँ से उद्गम, कहाँ निर्गम  ? 

निक्षेप ही निक्षेप, 
दुर्गम ही दुर्गम
अंतहीन सिलसिला । 

बिना कोई बांध,बिना समाधान
ना धार, ना आधार
कहाँ जुड़े, कहाँ बिछुड़ें  ? 

निरख परख क्या, क्यों, कब तक
है कल्पना शब्दों की तो
क्यों नहीं बनती हकीकत  ? 

अनंत से बहती आ रही
थकी जीवन नदी की व्यथा का
महाकाल है कहाँ  ? 

सागर में या मरुस्थलों में 
सिमटेगा जहां  ।
निरंतर जीवन जगत में
जीवन बहता जा रहा 
बन नदी  । 

बिना कोई उद्गम, 
बिन पड़ाव
कहाँ से उद्गम, कहाँ निर्गम  ? 

निक्षेप ही निक्षेप, 
दुर्गम ही दुर्गम
अंतहीन सिलसिला । 

बिना कोई बांध,बिना समाधान
ना धार, ना आधार
कहाँ जुड़े, कहाँ बिछुड़ें  ? 

निरख परख क्या, क्यों, कब तक
है कल्पना शब्दों की तो
क्यों नहीं बनती हकीकत  ? 

अनंत से बहती आ रही
थकी जीवन नदी की व्यथा का
महाकाल है कहाँ  ? 

सागर में या मरुस्थलों में 
सिमटेगा जहां  ।