छलकते नेत्र अंबुद के, हिय अन्तस भिगोते है। पखारें भाव भीतर से, व्यथा के पल संजोते है। कलश दृग से जो बहती हैं वेदना की वो सरिता है । प्रक्षालित कर हृदय मेरा कलुषता को मिटाती है ॥ छलकते नेत्र अंबुद के, हिय अन्तस भिगोते है। पखारें भाव भीतर से, व्यथा के पल संजोते है । भिगाती जो ये बूंदे हैं, हृदय की पीर मिटती है, समाहित कर सकल संताप,