--------------धन की आसक्ति------------ अनुराग,प्रेम,मित्रता अब धन पे है संवरती, मां के दिल की ममता भी अब है पुकारती, रह रह के इंसानियत है तेज से सिसकती, धन के अभाव में अब न जिंदगी गुजरती, चित्त,ध्यान,कल्पना भी अब नही निखरती, भाव भंगिमाएं भी अब जेहन में न उतरती, संत,कवि,वैद्य की अब है विद्वता बिगड़ती, संपदा की ये लालसा है शौर्यता नकारती, सत्य,दया,धर्म अब मनुजता को काटती, दौलत की टोह में है वैमनस्यता पनपती, राज,शक्ति,सत्ता अब अनुराग की विरक्ती, संपत्ति की आसक्ति ही है नर की विपत्ती, कर्म,कांड,कृत्य सब है लोभ से पनपती, धन से ही धर्म की है व्याख्या बदलती, कृष्ण,राम,गौतम की ये धरा है पुकारती, धर्म,दया,प्रेम से है ये जिन्दगी संवरती, अनुराग,प्रेम,मित्रता अब धन पे है संवरती, माँ के दिल की ममता भी अब है पुकारती। ©राजेश कुशवाहा --------------धन की आसक्ति------------ अनुराग,प्रेम,मित्रता अब धन पे है संवरती, मां के दिल की ममता भी अब है पुकारती, रह रह के इंसानियत है तेज से सिसकती, धन के अभाव में अब न जिंदगी गुजरती, चित्त,ध्यान,कल्पना भी अब नही निखरती,