कुंठित मन्न से कलम पकड़ आभा न सवारी जाती है अभिमति के कारक संग काली राहे न काटी जाती है लंका है तुम्हारी तुम लंका के मगर तुम राम नहीं तो पास हीं रखो लंका अपनी संकीर्ण मन्न से न खैरातें बाँटी जाती हैं दिल के निर्झर से बहती हुई वो मोद की बातें कुछ और हीं है वैसे ढोंगी मन्न से सुन्दर मुस्काने भी न दिल में उतारी जाती हैं दुनिया के भोज-पत्र पर भी हम सज् हैं जीवन बिताने को मगर जब तक विग्रह ना हो इस दक्ष समाज के कुछ निपुण रिवाजों पर ये चलती हुई न जिन्दगी गुजारी जाती है #tryNEW