स्वाधीन हूँ मैं, कि फ़िर भी पराधीन हूँ मैं जकड़ा हुआ समाज की इन कुरीतियों में गर्म खून है रगो में, विचारो में शीतलता हैं हा में हा मिलाकर चलता समाज चिन्ह पर सोच धूमिल है या मन सुध बुध खो बैठा हैं स्वाधीन होकर, तू पराधीन जीने को बैठा हैं मन और विचारों की पराधीनता कायरता हैं उठ खड़ा हो ! तोड़ दासता की ये बेड़ियाँ पराधीनता:- कविता स्वाधीन हूँ मैं, कि फ़िर भी पराधीन हूँ मैं जकड़ा हुआ समाज की इन कुरीतियों में गर्म खून है रगो में, विचारो में शीतलता हैं हा में हा मिलाकर चलता समाज चिन्ह पर