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#OpenPoetry पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से

#OpenPoetry   पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
रोब  तो  हम  ऐसे  दिखाते  हैं
जैसे  दुनियाँ  हमारी जागीर हो, 
दूसरों से हम कम नहीं के फेर में 
अपनी औकात भी भूल जाते हैं।
जहाँ  चार  पूड़ी  की  जरूरत 
वहाँ  हम  दस  पूड़ी  मंगाते हैं। 
ओरों का समझ पत्ते में यूंही छोड़ 
हम हाथ  धोकर  चले  जाते  हैं।। 
पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
दोस्तों में अपनी इमेज बने
दो के बदले तीन प्लेट मंगाते हैं,
आधा अधूरा खाकर हम
यूंही छोड़ चले जाते हैं।।
जहाँ पानी की नहीं जरूरत
वहाँ बोतलों का बोतल बहाते हैं,
अपनी नीच सोच के कारण
पैसा फेक कर चले जाते हैं।।
पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
इसी सोच के कारण आज 
शहरों का बहुत बुरा हाल है, 
हर कचरे के डब्बे में परा 
भोजन  का  भंडार  है ।। 
गली मोहल्ले चौराहों में
फैला बदबू का जाल है, 
महामारी और हैजा भी 
हम इंसानों का अहंकार है। 
पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
किसी देश या राष्ट्र को उन्नत 
शुध्द भोजन जल व हवा बनाता है, 
भूखमरी जल व बीमारी जैसे 
आर्थिक संकट से बचाता है।। 
यह तभी संभव होगा जब हम 
अन्न का महत्व समझ जाएंगे , 
खुद के स्वार्थ से उपर उठ कर, 
भोजन को बर्बाद होने से बचाएंगे। 
पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
_Kund@n #openPoetry 
''पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।'' 

पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
रोब  तो  हम  ऐसे  दिखाते  हैं
जैसे  दुनियाँ  हमारी जागीर हो,
#OpenPoetry   पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
रोब  तो  हम  ऐसे  दिखाते  हैं
जैसे  दुनियाँ  हमारी जागीर हो, 
दूसरों से हम कम नहीं के फेर में 
अपनी औकात भी भूल जाते हैं।
जहाँ  चार  पूड़ी  की  जरूरत 
वहाँ  हम  दस  पूड़ी  मंगाते हैं। 
ओरों का समझ पत्ते में यूंही छोड़ 
हम हाथ  धोकर  चले  जाते  हैं।। 
पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
दोस्तों में अपनी इमेज बने
दो के बदले तीन प्लेट मंगाते हैं,
आधा अधूरा खाकर हम
यूंही छोड़ चले जाते हैं।।
जहाँ पानी की नहीं जरूरत
वहाँ बोतलों का बोतल बहाते हैं,
अपनी नीच सोच के कारण
पैसा फेक कर चले जाते हैं।।
पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
इसी सोच के कारण आज 
शहरों का बहुत बुरा हाल है, 
हर कचरे के डब्बे में परा 
भोजन  का  भंडार  है ।। 
गली मोहल्ले चौराहों में
फैला बदबू का जाल है, 
महामारी और हैजा भी 
हम इंसानों का अहंकार है। 
पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
किसी देश या राष्ट्र को उन्नत 
शुध्द भोजन जल व हवा बनाता है, 
भूखमरी जल व बीमारी जैसे 
आर्थिक संकट से बचाता है।। 
यह तभी संभव होगा जब हम 
अन्न का महत्व समझ जाएंगे , 
खुद के स्वार्थ से उपर उठ कर, 
भोजन को बर्बाद होने से बचाएंगे। 
पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
_Kund@n #openPoetry 
''पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।'' 

पैसा हम कमाते हैं, पर सामान समाज से लाते हैं,
अपनी खुद़गर्जी के लिए खाना कचरा में बहाते हैं।
रोब  तो  हम  ऐसे  दिखाते  हैं
जैसे  दुनियाँ  हमारी जागीर हो,
kundanspoetry7099

KUNDAN KUNJ

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