घर से दूर नौकरी करने वालों को समर्पित , घर जाता है तो मेरा ही बैग मझे चिढ़ाता है , मेहमान हूँ अब मन पल पल मुझे सताता है माँ कहती सामान बैग में फौरन डालो , हर बार तुम्हारा कुछ ना कुछ छुट जाता . घर पंहुचने से पहले ही लौटने का टिकट , वक्त परिंदे सा उड़ता सा जाता है . उगलियों पर लेकर जाता गिनती के दो दिन , फसलते हुए जाने के दिन पास है आ जाता है अब कब होगा आना सबका पूछना ये उदास सवाल भीतर तक बिखराता है , घर से दरवाजे से निकलने तक , बैग मे कुछ ना कुछभरते जाता हूँ . जिस घर की सीढ़ियां भी मुझे पहचानती थी . घर के कमरे की चप्पे चप्पे में बसता सा था में लाइट्स फैन के स्विन्च भूल डगमगाता हूँ मै पास पड़ोस जहाँ बच्चा भी था वाकिफ ,आज बड़े बुर्जुग बोलते बेटा कब आया पूछने चले आते हैं . कब तक रहोगे पूछ कर अनजाने में वो घाव को और गहरा कर जाते हैं ट्रेन में माँ के हाथों की बनी रोटियाँ . रोते हुए आँखों में घुँधला कर जाते है , लौटते वक्त वजनी हुआ बैंग सीट के नीचे पड़ा खुद उदास हो जाता है . तू एक मेहमान है अब ये पल मुझे बताता है आज भी मेरा घर मझे वाकई बहुत याद आता है . -S@rg