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हम जीवन में लाखों कार्य करते हैं। यह भी मानते हैं

हम जीवन में लाखों कार्य करते हैं।
यह भी मानते हैं कि अपनी मर्जी से कर रहे हैं।
क्या हम “मर्जी” को पैदा कर सकते हैं कभी नहीं।
मर्जी तो मन में अपने आप पैदा होती है।
जिस मर्जी को मन स्वीकार कर लेता है,
वह मेरी मर्जी हो जाती है।
मैं उस मर्जी को पूरा करने का माध्यम बन जाता हूं।
मेरा जीवन तो मर्जी पैदा करने वाला चलाता है।
कृष्ण कितने सहज भाव से कह गए-कर्ता भाव मत रखो।
निमित्त बन जाओ।
सब कुछ मुझे अर्पण कर दो।
गहराई से देखेंगे तो पता चल जाएगा कि
हम कर्ता बन ही नहीं सकते।
चाहें तो स्वीकार कर लें
अथवा नकार दें। बीच के क्षेत्र को मध्य कहते हैं। जहां दूरी दिखाई पडे, तो उसे पाटने के लिए माध्यम की आवश्यकता पडती है। वह साधन भी हो सकता है, व्यक्ति भी, अथवा प्रकृति का कोई तत्व भी। व्यवहार मूलत: दो तरह का होता है-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष। परोक्ष व्यवहार में माध्यम की भूमिका प्रमुख हो जाती है। मध्यस्थता करने वाले को भी माध्यम ही कहा जाता है। इसी प्रकार जीवन को समग्रता से देखा जाए तो समझ में आएगा कि जीवन भी माध्यम के सहारे ही चलता है। चाहे कर्म के माध्यम से, भाग्य के माध्यम से अथवा निमित्त के माध्यम से।
:
आज तो रेडियो-टीवी-अखबारों को ही माध्यम कहा जाने लगा है। ये तो बहुत ही स्थूल माध्यम हैं। इनकी जानकारियां अन्तस को इतना प्रभावित भी नहीं करतीं। इतना मनोयोग से और लोकहित में कोई लिखता ही नहीं। जो जानकारियां इनसे प्राप्त होती हैं, वे बाहरी जीवन से जुडी होती हैं। समय के साथ बदलती भी जाती हैं। इनमें स्थायित्व नहीं होता। जीवन के शाश्वत सत्य तो आज धर्मो में भी तोड-मरोडकर पेश किए जाते हैं। इसीलिए जीवन विषैला होता जा रहा है। जहां तक बन पडे व्यक्ति को ऎसे माध्यमों से दूर ही रहना चाहिए। भले ही आकर्षित करते हों। मन में संकल्प कर लेना चाहिए कि विषपान नहीं करेंगे।
क्रमसः....
#komal sharma
#shweta mishra
#yashavant soni
हम जीवन में लाखों कार्य करते हैं।
यह भी मानते हैं कि अपनी मर्जी से कर रहे हैं।
क्या हम “मर्जी” को पैदा कर सकते हैं कभी नहीं।
मर्जी तो मन में अपने आप पैदा होती है।
जिस मर्जी को मन स्वीकार कर लेता है,
वह मेरी मर्जी हो जाती है।
मैं उस मर्जी को पूरा करने का माध्यम बन जाता हूं।
मेरा जीवन तो मर्जी पैदा करने वाला चलाता है।
कृष्ण कितने सहज भाव से कह गए-कर्ता भाव मत रखो।
निमित्त बन जाओ।
सब कुछ मुझे अर्पण कर दो।
गहराई से देखेंगे तो पता चल जाएगा कि
हम कर्ता बन ही नहीं सकते।
चाहें तो स्वीकार कर लें
अथवा नकार दें। बीच के क्षेत्र को मध्य कहते हैं। जहां दूरी दिखाई पडे, तो उसे पाटने के लिए माध्यम की आवश्यकता पडती है। वह साधन भी हो सकता है, व्यक्ति भी, अथवा प्रकृति का कोई तत्व भी। व्यवहार मूलत: दो तरह का होता है-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष। परोक्ष व्यवहार में माध्यम की भूमिका प्रमुख हो जाती है। मध्यस्थता करने वाले को भी माध्यम ही कहा जाता है। इसी प्रकार जीवन को समग्रता से देखा जाए तो समझ में आएगा कि जीवन भी माध्यम के सहारे ही चलता है। चाहे कर्म के माध्यम से, भाग्य के माध्यम से अथवा निमित्त के माध्यम से।
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आज तो रेडियो-टीवी-अखबारों को ही माध्यम कहा जाने लगा है। ये तो बहुत ही स्थूल माध्यम हैं। इनकी जानकारियां अन्तस को इतना प्रभावित भी नहीं करतीं। इतना मनोयोग से और लोकहित में कोई लिखता ही नहीं। जो जानकारियां इनसे प्राप्त होती हैं, वे बाहरी जीवन से जुडी होती हैं। समय के साथ बदलती भी जाती हैं। इनमें स्थायित्व नहीं होता। जीवन के शाश्वत सत्य तो आज धर्मो में भी तोड-मरोडकर पेश किए जाते हैं। इसीलिए जीवन विषैला होता जा रहा है। जहां तक बन पडे व्यक्ति को ऎसे माध्यमों से दूर ही रहना चाहिए। भले ही आकर्षित करते हों। मन में संकल्प कर लेना चाहिए कि विषपान नहीं करेंगे।
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