कल आईने को देख कर के डर गया शहर, अपना ही चेहरा देख कर सिहर गया शहर।। है क्या विडंबना कि ये वहीं नहीं पहुँचा, जिस जानिब-ए-डगर पे उम्र भर गया शहर।। अपनी ही ज़िन्दगी से तंग आके एक दिन, फिर अपने गाँव के पुराने घर गया शहर।। ये दौड़ और हाथ में, वक़्त और ख़्वाहिशें, संभालते-संभालते, बिखर गया शहर।। सब छोड़कर चला गया इक रोज़ हार कर, और लौट कर कभी न फिर शहर गया शहर।। आहिस्ता-हिस्ता बढ़ रहा था मौत की तरफ, अच्छा हुआ कि बस यहीं ठहर गया शहर।। कल रात के अंधेरे में ये हादसा हुआ, होती रही बरसात और मर गया शहर।। #sheher #citylights #psr #prashant