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मंज़िल भी हस पड़ी थी मुझे पर जब मै अनजान रास्ते पे

मंज़िल भी हस पड़ी थी मुझे पर
जब मै अनजान रास्ते पे अपनी मंज़िल ढूंढने चलि थी 
समझ तो आई थी मुझ में
जब मै टूट कर काचों सी वापस जुड़ गई थी
मुकम्मल करने अपने दस्तूर को
अपने आलम के गमकदे
गवारा करने चली थी
फितूर तो था बहुत मुझमें में 
पर  अपनी दुनियां को पाने 
कर्कस से वास्ता जोड़ने चली थी..।

©Mehak Mansoori अनजान रास्ते पे अपनी मंज़िल ढूंढने चलि थी..।
#iwrotethispoeminclass7th
मंज़िल भी हस पड़ी थी मुझे पर
जब मै अनजान रास्ते पे अपनी मंज़िल ढूंढने चलि थी 
समझ तो आई थी मुझ में
जब मै टूट कर काचों सी वापस जुड़ गई थी
मुकम्मल करने अपने दस्तूर को
अपने आलम के गमकदे
गवारा करने चली थी
फितूर तो था बहुत मुझमें में 
पर  अपनी दुनियां को पाने 
कर्कस से वास्ता जोड़ने चली थी..।

©Mehak Mansoori अनजान रास्ते पे अपनी मंज़िल ढूंढने चलि थी..।
#iwrotethispoeminclass7th