कुछ क्षण को, जा बैठी, नील गगन के आंचल में, पूर्णता में लीन किया, उस अविचल तारापथ ने...... उदेशविहीन विचारो ने, हिय पर, जो विषाद किया.... अतं में ज्ञान की ज्योति ने ही, भावो पर जय घोष किया... हर तृण निर्जीव सा लगता था निष्प्राण रूप था तेज बिना, यह मन भटका था वर्षो, जब प्राणविहीन था ज्ञान बिना.. कैसा यह मानव जीवन है, लोभ मोह में उलझा सा, ब्रह्म मिथ्या, जगत सत्य का, रसपान सदा से ही करता... क्या भौतिकता की सृष्टि से खोज स्वयं की पूरी होगी...? या अंतर्मन की गति से ही, क्या जीवन की तृप्ति होगी....? है विचारणीय प्रश्न मगर, क्या उत्तरित कभी हो पाएगा, या आत्मबोध का चिंतन बस....चिंतन भर ही रह जायेगा आत्मबोध, कुछ क्षण को, जा बैठी, नील गगन के आंचल में, पूर्णता में लीन किया, उस अविचल तारापथ ने......